कर दो प्रेवा नारायनमस्कृत्यादनम् चैवादरुक्तमं देविंसरस्वतिं व्यासं ततोजयं उदीलये कि आज आयान नमस्कृत्य नरम चैम नरूत्तमं देविंग सरस्पति न्यासं ततोज़ाम पार्थ जीवन का रहस्य जाने तनसार के वास्तविक रूप को समझो गंगा के प्रवाह में मुठी डाल कर निकाली जाए तो कुछ प्राप नहीं होता किन्तु उस अदेली की अंजुली बना कर गंगा के प्रवाह में डाली जाए तो गंगा जल मुख तक पहुँच बाता है प्रचार करुपार अहंकार की मुठी बांदी है या समर्पन की अंजुली बनाई है तुमने इस ज्ञान को ग्रहन कर पाओगे ये संसार क्या है पार्थ? मानव, दानव, पशु, बक्षी, जन्तु, कीटक, मत्से, व्रिक्ष ये सब कैसे बनते हैं? किन पधार्थों से इनका जन्म होता है?
कैसे चलते हैं? कैसे जीते हैं? वित्यू कैसे होती है इनकी?
और मृत्यु के पश्चात क्या होता है इस रहस्य का विचार करो अनुश्य की देह मिट्टी से बनी है माधर जल उसमें रक्तादी बनकर परवाह करता है अगनी देख को तापमान देती है और देह में रिक्ष स्थानों में आकाश प्रकट होता है खात, धर्पी, बायू, ज़रूराद, जल, अगनी और आकाश इन पंच महा भूतों से ही शरीर का निर्मान हो आर्थात महा महीम गुरु द्रोण पृत्वी जल वायू अगनी और आकाश से अधिक कुछ भी नहीं धर्म ज्ञानी भी पंच महा भूत का जोड़ है और अधर्मी भी तो मोह किसका कर रहे हो बार्थ? मिट्टी का? परन्तु माधब, इस मिट्टी के देह से ही तो मनुष्य एक दूसरे का परिचे पाते हैं सारे संबंध इस मिट्टी के देह से ही तो होते हैं नहीं बार्थ, यदि ये सत्य होता तो मृत्यू के पश्चात देह को नष्ट क्यों किया जाता है? वास्तव में ना मनुष्य का परिचे उसकी देह से है और ना ही संबंधों का आधार उसकी देह से मनुष्य का स्वभाव, उसके बर्ताव और उसके कार्य उसका परिचे ये स्वभाव, बर्ताव और कार्य कैसे बनते हैं?
इसे समझो पार्थ मनुष्य जीवन केवल बीस द्रिश्य और अद्रिश्य पदार्थों का मेल है पार्थ किन्तु फिर प्रतेख मनुष्य के स्वाभाव तथा कारे भिन प्रतीत होते हैं इसका कारण है स्ट्रिष्टी के तीन गुण तमस, रजस और सत्व ये तीन गुणों क्या है माता? तमस का अर्थ होता है अंधकार विना अच्छे बुरे का विचार किये जीवन व्यतीत करने को तामसिक वेहवार कहा जाता जैसे पशु पक्षी जीते केवल अपनी शारीरिक इक्षाओं को पूर्ण करने के लिए सत्व का अर्थ होता है, ज्यान का प्रकाश, जब वेक्ती प्रतेक परिस्थिती में धर्म का, सत्य का और परंपराओं का विचार करके वहवार करता है, तब उसे सात्विक जीवन कहा जाता है. इन दोनों के मध्यमें ऐसा वेक्ती होता है, जिसके पास ज्यान तो है.
पर शरीर और मन की ख्षाओं के साथ बंदा हुआ भी है। ऐसा मनुष्य रजस अर्थात अहंकार पून मनस्तिती के साथ जीता है। समस्त रजस तथा सत्व गुणों के अधिक या कम मातरा के मेल से मनुष्य का स्वभाव बनता है। अमने देखो पार्थ, इन सब में तुम्हें कौन से गुण दिखाई देते हैं? युवराज दुर्योधन धर्म जानते हैं प उनके जीवन का केंद्रा हंकार अत्थात उनमें तमस कम, रजस अधिक और सत्व गुण पूनता नहीं। और इस ओर राजकुमार दुशासन। उन्होंने सदेव अपने जेष्ट राता का अदेश माना है बिना विचारी अर्थात इनमें केवल तमस्त महामहीम को भी देखो बार्थ सत्व के साथ तमस्त का मेल है अहंकार नहीं किन्तु पुरातन धर्ब पुरानी परात्म परंपराओं और प्रण के साथ बंदे हैं आविशक्ता होने पर भी अपना प्रण नहीं तोड सकते हैं गुरु द्रोन को देखो ज्यान और अहंकार दोनों ही हैं ज्यान तो मनुष्य को मुक्ती दिलाता है पर इनका हंकार इन्हें मुक्त नहीं होने देता। परन्तु माधा, यदि मनुष्य का सौभाव इन तीन गुणों का मेल है, तो फिर मनुष्य का व्यवहार पहले से ही निश्चित है। तो ये हिरन को खाएगा ही। और हिरन्त नहीं से भयवीत ही होगा तो फिर धर्म की प्रशंसा क्यों? अपराद का दंड क्यों? उसका क्या तात्पर है? प्रश्न है पार्थ किन्तु पहले मनुष्य क्या है?
ये तो जान लो मनुष्य केवल पांच महा भूत नहीं, पांच पदार्थ नहीं, पांच ग्यानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां तथा तीन गुण ऐसी तेइस वस्तुओं का मेल भी नहीं। मनुष्य को चलने फिरने तता कारे करने हेतु शक्ति की आविशक्ता होती है और शक्ति को चेतना कहते हैं। तो क्या माधव मनुष्य इसकी चेतना है? नहीं पार्ट, मनुष्य की चेखना के साथ, उन तेज़ वस्तुओं के मेल का नाम प्रक्रती है। चौबिस वस्तुओं से बने मनुष्य नामक यंत्र में वास करता है। पुरुष, अर्थाद, परमात्मा का अंश। उसे आत्मा कहा गया है। जब रत्रती और भुरुष का मेल होता है अर्थात जब परमात्मा का आंच आत्मा बन कर देह में वास करता है तब मनुष्य जीवित होता है ये आत्मा क्या है माधाव और इसे जानने का क्या उपाए मनुष्य जैसे रत का उप्योग करता है वैसे ही आत्मा शरीर नाम के इस यंत्र का उप्योग करती है। चरीर के माध्यम से शरीर के सुख दुख का उपभोग करती है। किन्तु आत्मा शरीर नहीं पाड़त, शरीर का नाश किया जा सकता। किन्तु आत्मा का नाश नहीं किया जा सकता। नैनं छिंदन्ती शस्त्राणी, नैनं दहती पावका, नचैनं क्लेद यंत्यापो, नशोष्यती मारता। आत्मा ना शस्त्रों से छेदी जा सकती है और ना ही अगनी से जलाई जा सकती है ना जल उसे निर्बल कर सकता है और ना ही पवन उसे सुखा सकती है आत्मा शरीर में रहते हुए भी अमर है नहन्यते हन्यमाने शरीरे पार्थ शरीर की हत्या की जा सकती है किन्तु आत्मा की हत्या नहीं की जा सकती आत्मा तो सर्व व्यापी है अचल है, स्थिर है सनातन है पुराना वस्त्र त्याग कर जैसे मनुष्य नया वस्त्र धारन करता है वैसे ही आत्मा पुराना शरीर छोड़कर बार नया शरीर धारण करती है परन्तु माधव मैं तो जगत का अनुभव अपने शरीर के माध्यम से ही करता हूँ स्वेम को देहना जानकर मैं आत्मा कैसे जान सकता हूँ स्वेम को आत्मा के रूप में जानना असंभव भी नहीं पार्थ अंध भी जीते हैं जिनके पास हाथ पैर नहीं होते वो भी जीते हैं पश्ट कि शरीर मनुष्य नहीं है जिसकी चेतना चली जाती है जिसे मूर्चा आ जाती है वो भी जीवित रहता है इसलिए स्पष्ट है कि मनुष्य का चेतन तत्व वो भी शरीर नहीं इसी प्रकार जो वेक्ति अपने भीतर खोज करता है मैं इंद्रिया नहीं, शरीर नहीं, भावनाई नहीं, विचार नहीं यान भी मैं नहीं जो ये समझता जाता है वो अंत में स्वेम वो आत्मा के रूप में जान ही लेता है। यह आत्मा का क्या कारे है माधाव? जब परभ्रम के भाग हुए, पुरुष तता प्रकृती बने, तब पुरुष अर्थात परमात्मा के अंश ने आत्मा बनकर, प्रकृती की प्रतेक वस्तु में वास दिया। आत्मा को मोह थता अंधकार ने घेर लिया पाग। उस मो निद्रा से जागरित होकर स्वयम को परमात्मा का अंश जानना ही। आत्मा का कर्तव्य, उद्देश्य और जीवनकार्य। परन्तु माधा, यदि हर आत्मा परमात्मा का अंश है, तो क्या उन्नती और अवगती परमात्मा का अंश है? पर्मात्मा कर रहे हैं?
दुख, स्वाद, गंध आदी का अनुभव होता है उसे अपना अनुभव मान लेती है और बदलाव का प्रयास ही नहीं करती जो आत्माएं बदलाव का प्रेतन नहीं करती हैं निरंतर अधर्म करती रहती हैं उन्हें जागरत करने के लिए दंड देना निवार है तुम भी ये जान लो पार्थ कि तुम शरीर नहीं केवल एक आत्मा हो इस रण भूमी में दिखाई देने वाला प्रते क्योधा वो नहीं जो तुम उने मानते हो कुछ समय के लिए इन सब ने शरीर में वास किया है जब तक जब त यही ब्रह्म विद्या का प्रथम पाठ है पार्थ जो जन्मा है वो अवश्य मरेगा और जो मरता है वो अवश्य फिर से जन्म लेगा इस महा ज्ञान को सांखे योग कहते हैं ये धर्म और अधर्म क्या है माधर? जिस मार्ग पर चल कर मनुष्य स्वैम को आत्मा के रूप में देखता है परमात्मा के अंश के रूप में स्वैम को जानता है उस मार्ग को धर्म कहते हैं अर्मे चा अर्धे चा कामे चा मुक्षे चा भर्णर्शा जब मनुष्य स्वैं को परमात्मा के अंश के रूप में जान लेता है तब उसे ये अनुखूती होती है ये सृष्टी ही परमात्मा है और ये परमात्मा ही सृष्टी है सृष्टी और परमात्मा में कोई भेद नहीं जो मनुष्य ये जान लेता है, वो दूसरे मनुष्यों और प्राणियों की ओर फिर दई और कठोर नहीं होता, वो ये जानता है कि जीव कटने से पीड़ा केवल जीव को नहीं होती उसकी अनुखोती समग्र शरीर को होती है। वैसे एक मनुश्य को पीड़ा होती है, तो समग्र संसार उस पीड़ा का अनुखव करता है। जब तक संसार में एक मनुश्य भी पीड़ित है, तब तक वास्तव में किसी का भी सुक सम्पूर्ण नहीं। जानने पर मनुश्य का मन करुणा से भर जाए। उसे धर्म कहते हैं। जब किसी पर तमस गुण छाया होता है, तो वो दूसरों के प्रती कठोर, निर्दई और स्वार्थी हो जाता है। अपने माने हुए सुक के लिए वो दूसरों को दुख देता है। परमात्मा की और गती नहीं हो पाती उसकी। अधार्म परमात्मा से दूर ले जाने वाले मार्ग का नाम है। अर्थात अधर्म तो अज्ञान का दूसरा नाम है। तो फिर अज्ञानी के प्रती तो दया होनी आवश्यक है ना। दन्ड का क्या तात्पर है। अज्ञानी जब ज्ञान का ज्ञान पर दृष्टि डालने को भी सजना तब गंड ही दया है उसके प्रति भी और दूसरों के प्रति भी सृष्टि की गती सदा ही परमात्मा की ओर हो यनि वारे किन्तु कभी ऐसी स्थिति उत्पन हो जाती कि अज्ञान, मोह और अधर्म बढ़ जाता है। संसार से धर्म लुप्थ हो जाने का भई उत्पन हो जाता है। संसार से जब धर्म लुप्थ हो जाता है, परुणा भी नष्ट हो जाती है और सत्य भी नष्ट हो जाता है। आने वाली पीडियों को धर्म प्राप्त हो सके इसके लिए आज धर्मियों का नाश करके धर्म की पुन्ह स्थापना करना अनिवार रहे हैं आज भी ऐसी ही स्थिती है पार्थ और धर्म स्थापना का कर्तव्य तुम्हारा है इसलिए निर्बलता का त्याग करो और इस युध के लिए सज हो जाओ और इस युध के लिए सज हो जाओ और इस युध के लिए सज हो जाओ परन्तु मेरे हाथों हत्याएं होंगी माधर मेरे कारण किसी के प्राण जाएंगे मेरे अंतर की करुणा का नाश नहीं हो जाएगा और यदि धर्म का आधार करुणा है, तो क्या मेरी आत्मा धर्मी नहीं हो जाएगी? धर्म का बंधन अवश्य निर्मित होता है, इंतु कारे का बंधन निर्मित नहीं होता पार्ट. तुम्हें कर्म और कार्य के बीच क्या फेद है ये जानना आवश्यक सभी कर्म कार्य हैं लेकिन सभी कार्य कर्म नहीं है कर्म उस कार्य को कहते हैं जिसके साथ अल की आशा जुड़ी है अनुश्य जब भी सुख की संपत्ती रशंसा की आशा रख कर कोई कार्य करता है तो वो स्कारे के फल से बंध जाता है। जब किसी कर्म को फल की आशा से किया जाए, तो उसे सकाम कर्म योग कहते हैं। और जब किसी कर्म को बिना किसी फल की आशा से किया जाए, तो उसे निशकाम कर्म योग कहते हैं। इसी कारण से उसे बार जन्म लेना पड़ता है। वास्तव में मनुष्य को कोई कर्म नहीं बांधता। गर्म से जुड़ी आशाएं उसे बात दीखी वो कैसे माधा?
यदि इस योद में त आपको विजए होने की आशा है, तो पराज़ित होने पर तुम्हें भीशन दुख होगा। और वो दुख तुमसे कोई अन्य कारे करवाएगा, जिसके लिए तुम्हें दूसरा जन्म लेना पड़ेगा। और यदि तुम विजए होए, तो तुम्हारा हंकार बड़ेगा। और वो हंकार तुम्हें विश्व विजे के लिए प्रेरित करेगा। तुमसे हत्य विचार करो यदि तुम्हें इस युद्ध में ना विजए का मोह हो और ना पराजए का भए तो इस युद्ध के अंत में तुम्हें सुख प्राप्त होगा या दुख प्राप्त होगा ना सुख माधव और ना ही दुख अर्था तुम्हारा सुख दुख हताशा निराशा अहंकार युद्ध के कारण नही युद्ध के साथ तुमने जो आशाएं बांधी हुई हैं उसके कारण क्या ये सत्य नहीं है पार्ट सुख दुखे समे कृत्वा लाभा लाभो जया जयो ततो युधाई युज्यस्व नैवं पाप मवाप्स्यसी अर्थात सुख दुख को समान मान कर लाब, हानी, जै, पराजे का विचार के बिना यदि तुम युध करोगे कौन तै तो तुम पाप के भागी नहीं बनोगे इसी को कर्म योग कहते हैं जो सांखे का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वो ये जान लेता है कि वो शरीर नहीं, केवल एक आत्मा है, शरीर के भोग और अनुभव तो केवल मृत्यू तक है, अर्थात वास्तविक नहीं, केवल माया है, उसके लिए कर्म योगी बनना सरल हो जाता है परन्तु माधव, यदि कारे से बंधन निश्चित है, तो क्या संसार का त्याग करके सन्यास लेना उच्छित नहीं? इसी विचार का परिणाम है कि आज ये युद हो रहा है बार्थ, विचार क जब सत्म गुण से भरे धर्म को जानने वाले लोग कर्मों का त्याग करते हैं, तब धर्म से भरे लोग भी संसार को चलाते हैं। यदि महमहीम ने संसार का त्याग ना किया होता, तो आज अधर्म इतना बढ़ता ही नहीं। और तुम्हारे पिता ने यदि सन्यास ना लिया होता, तो आज प्राता युधिष्टर सुख से राज कर रहे होते, और अपनी प्रजा को न्याय और धर्म का ज्ञान दे रहे होते, किन्तु दुखताएक बात तो ये है पार्थ, कि सत्व गुण से भरे मनुष्य ही संसार को पिन्तु वो ही सन्यास का विचार करते हैं जैसे जल तो भाप बन कर उड़ जाता है और कीचड, कीचड वहीं पड़ा रहता है वैसे सत्वगुणी सज्जन लोग तो संसार का त्याग कर देते और तमस से भरे अधर्मी लोग संसार में कार्य करते हैं इसी कारण से संसार में पाप और अधर्म बढ़ता है किन्तु कर्म योग इस विचित्र स्थिती से सारे संसार का रक्षन करता है। कर्म योगी फलकी आशा का त्याग करता है, किन्तु कर्मों का त्याग नहीं करता। वो इसी संसार में रहता है, सन्यासी की भाथी, सारे कारे करता है, किन्तु उनमें लिप्त नहीं होता। कर्म योगी अपनी संतानों से, स्वजनों से। अपनी प्रजा से कोई अपेक्षा या आशा नहीं रखता स्वेम उसे सन्यास का लाब होता है किन्तु समाज को संसारी की भाती लाब देता है मनुष्य अपनी संतानों के सुख के लिए श्रम करता है माधव अपनी संतान से सुख की अपिक्षा कैसे न रखे मनुष्य अपनी संतानों के लिए जो भी करता है वो व्यपार है या प्रेम पार्थ प्रेम माधव तो फिर अपने कार्यों के प्रती फल की इक्षा क्यों पार्थ अविश्चे का लाब तो व्यापार में देखा जाता है, प्रेम में नहीं। जो मनुष्य अपनी संतानों का चरित्र निर्मान उचित रूप से करता है, संतानों को प्रेम और धर्म के संसकार देता है, उसकी संताने भी मनुष्य को प्रेम और सुरक्षा अवश्य देती है। संतानों के कर्म, स्वजनों के वैवार, उनके कर्म है पार्थ और जब उनके कर्मों पर हमारा कोई अधिकार नहीं होता तो उनसे आशाएं और अपेक्षाएं रखने का क्या प्रयोज है। और मनुष्य स्वयं पर्मात्मा का अंश है तो सारे कारे पर्मात्मा ही करते हैं मनुष्य स्वयं कुछ नहीं करता यही कर्म योग का मूल सिधान्त है पार तुम्हें भी कर्म योगी बनकर यह युद करना आवश्चक है पार त्रेगुणिया विश्या वेदा निस्त्रेगुणियो भवार्जना निर्द्वन्द्वो नित्यस्तत्वस्थो निर्योग शेम आत्मवान तीन गुणों का त्याग करके निर्गुण बन जाओ पार इस द्वन्द से मुक्त हो जाओ सदा सत्व अर्थार परमात्मा में बुद्धी लगा कर कर्तव्य का वहन करते रहो कुछ प्राप्त करने की इक्छा और कुछ प्राप्त किये होए का रक्षन करने का विचार त्याग दो पार्थ और अपनी आत्मा को स्वतंत्र करने स्मरन रहे पार्थ कर्मन्यवा अधिकार अस्ते माफलेशु कदाचना मा कर्मफल हे तुर्भू माते संगोस्त्व कर्मणी तुम्हारा अधिकार तो केवल कर्म करने का है फल तो ईश्वर के हाथ में इसलिए ना कर्म से भागना उचित है और ना ही कर्म के फल की आशा रखना उचित है प्रश्न प्रश् भोजन का ही त्याग कर देता है वास्तव में उसके मन से स्वाद की लालसा कभी जाती ही नहीं उसे दुहरी हानी होती है एक तो वो निर्बल हो जाता है जिसके कारण परमात्मा को प्राप्त करने का जो प्रेत ननिवारे उसे वो नहीं कर पाता और दूसरा सदा ही उसका मन स्वाद की लालसा से भरा रहता है इसलिए भोजन का त्याग करने से उत्तम है, स्वात की लालसा का ही त्याग कर दिया जाए। कर्म योगी अपने मन की सारी लालसाओं को खीच लेता है। जीवन को कर्तव्य मान कर कार्य वश्य करता है। किन्तु उन कार्यों से जुड़ता नहीं। और पात जो विक्ति अपने कार्यों से आशाएं और इक्षा नहीं रखता। उसी के कारे पून होते एक असफलता से दुखी होकर जिसका मन दोलता नहीं एक सफलता से आननदित होकर जो स्वेम को सर्वश्रेष्ट नहीं मानता ऐसे ही वेक्ति को कर्म योगी कहते हैं और ऐसा वेक्ति जीवन में बार सफल होता है ध्यायतो विश्यान पुन्सः संगस्तेशु पजायते संगात संजायते कामा कामात त्रोधो भिजायते त्रोधात भवती सम्मोहम सम्मोहात स्मृति विभ्रम स्मृति विन्शात बुद्धी नाशो बुद्धी नाशात प्रनश्यती भल की आशा से कामना प्रकट होती है और कामना का तो स्वभाव है असंतुष्ट रहना असंतोष्ट से क्रोध उत्पन होता है और क्रोध से मोह जनता है मोह के कारण व्यक्ति आचार और वैवार का ज्ञान ही भूल जाता है ज्ञान के जाने से बुद्धी चली जाती है अनुचित प्रकार के कारे होने लगते है और समाज ऐसे व्यक्ति का शत्रू बन जाता है और अंत में ऐसे मनुष्य का पूर्णता पतन हो जाता है जैसे भ्राता दुर्योधन उनके सेनापती महामहीम उनके ही शत्रू हैं और तुम्हें विजे का आशिर्वात दिया है पार्थ कर्म योग ब्रह्म विद्या का दूसरा चरण है पर्मात्मा में अपनी बुद्धी स्थिर करो स्वेम को आत्मा जानो मिठ्या बंधनों से मुक्त हो जाओ और फल की आशा का त्याग करके केवल कर्म करते रहो अपनी बुद्धी को परमात्मा में स्थिर करके कर्म योगी बनने का क्या मार्ग है माद्वी पार्थ सांखे योग के कारण मनुष्य परमात्मा का निरंत स्वर्ण करता रहता है परमात्मा का स्मरन करने से मनुष्य के हृदे में समर्पन का भाव उत्पन होता है और उस भाव को भक्ती कहते हैं भक्ती से मनुष्य को सत्य असत्य का ज्ञान प्राप्त होता है उस ज्ञान से उसे परमात्मा के दर्शन होते हैं और जिसे परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं वही वास्तव में कर्व योगी बन जाता और जन्मों के फेरों से छूट कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता सभी आत्माव का अंतिम लक्ष वही और धर्म का अंतिम चरण भी वही किन्दु मैं परमात्मा के दर्शन के बिना समर्पन किस प्रकार कर सकता हूँ मादि परमात्मा के दर्शन करने हे तू अपनी आखों पर बंधे लाल्सा, अहंकार, क्रोध और पूर्वा ग्रह की पटियों को उतारना होता है। अंधेरे कक्ष में बैठा मनुष्य यदि कहे कि उसे सूरे के दर्शन करने हैं, तो उससे क्या कहोगे? यही कहोगे ना कि कक्ष से बाहर आ जाए और आकाश के नीचे खड़ा हो जाए। वैसे ही पार्ट, ये सृष्टी ही पर्मात्मा है, पर्मात्मा ही सब कुछ है, पर्मात्मा के सिवा कुछ भी नहीं है। जो अपनी आत्मा के धश्ण कर लेता है, वो पर्मात्मा के धश्ण कर लेता है। जैसे नमक के एक कण का स्वाद, समग्र सागर के स्वाद से भिन नहीं होता। वैसे अपनी आत्मा के दर्शन परमात्मा के दर्शन से भिन नहीं होते हैं पार्थ माधा, क्या आप भी पर्मात्मा हैं? हाँ पार्थ, मैं पर्मात्मा हूँ जैसे तुम भी पर्मात्मा हूँ केवल तुम अभी जागरत नहीं हुए हो और मैंने ये जान दिया है परमाधरमस तदात्मानम स्रिजाम्याम परमाधरम, आपके प्रति समर्पण, इश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं हो सकते? अवस्ते, मेरे प्रति समर्पण ही परमात्मा के प्रति समर्पण ही सर्वधर्मान परित्यजे मामेक शर्णम ब्रच सारी जगत का त्याग करके मेरी शरण में आजाओ पार्त मैं ही संसार हूँ मैं संसार का प्रतेख कन हूँ मैं ही सूरे हूँ और मैं ही चंद्र हूँ मैं ही नकशत्र हूँ और मैं ही सभी ग्रह हूँ मैं सूरे से भी अधिक पुरातन हूँ और किसी वृष्ट पर खिली कली से भी नया हूँ मैं ही सारे मनुष्य हूँ मैं ही स्वर्ग और नर्क को धारण करने वाली शक्ती हूँ मैं ही दुर्योधन हूँ और मैं ही अर्जुन भी हूँ वो कैसे संभव है माधर आपका जन्म तो बहुतों ने अपने जीवन काल में देखा है आपकी माता अभी भी जीवित है जिनके गर्ब से आपने जन्म लिया आप पुरातन और अविनाशी कैसे हो सकते हैं तुम शरीर देख रहे हैं और मैं आत्मा की बात कर रहा हूँ मेरे अनेक जन्म हुए हैं पार्ट मैंने अनेको अफ़तार धारण किये कई शरीर बने हैं मेरे और इसी मिट्टी में मिले और आगे भी मैं बार जन लूँगा परित्रानाय साधुनाम विनाशाय चदुशकृताम धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामी युगे परित्रानाय साधुनाम विनाशाय चदुशकृताम जब धर्म को हानी होती है, जब अधर्म में वृद्धी होती है, तब सत्पुर्शों के उद्धार के लिए, अधर्मियों के विनाश के लिए, और धर्म की पुनह स्थापना के लिए मैं ही जन्ब लेता हूँ.
ये प्रतेक युग में होता आया है, और आगे भी ऐसा ही होगा. मैं ही अविनाशी पर्मात्मा हूँ। मैं ही मत्से भी था। और मैं ही वामन अफतार भी। मैं ही पर्शुराम हूँ। और मैं ही राम चंद्र भी था। मैं ही भ्रम्मा विष्णु और महेश हूँ। और मैं ही सरस्वती, काली और लक्ष्मी भी मैं ना भुरुष हूँ, ना स्त्री हूँ, और ना ही नपुन्स हूँ मैं ना शरीर हूँ, ना शरीर के अंग हूँ मैं ज्ञान हूँ, स्त्रिष्टी हूँ, चेतन्य हूँ, और पर्व्धम हूँ मैं सब कुछ हूँ और मैं कुछ ही नहीं ऐसा प्रतेक युग में हुआ है और आगे भी ऐसा ही होता रहेगा जब तुम आत्मग्यान प्राप्त करोगे पार्थ, स्वैम को मुझसे जुड़ा ही पाओगे, तब तुम भी मेरी ही भाती स्वैम को परमात्मा के रूप में देखोगे, किन्तु उस पत को प्राप्त करने हे तु मेरे प्रती संभून समर्पन अनिवार रहे हैं। समर्पण क्या है माना? समर्पण मन की ऐसी स्थिती का नाम जब मनुष्य अपने सारे संकल्पों का त्याग कर देता स्वेम से किसी प्रकार के निर्णे अथवा प्रण भी नहीं लेता जिस प्रकार के कार्य उसे दिये जाते उसी प्रकार के कार्य करता वास्तव में समर्पण का अर्थ होता है अपने आप, अपने मन को, बुद्धी को, ज्ञान को, इक्षा को, आशा को, अपनी भावनाओं को, अपना सब कुछ किसी को अर्पण कर देना और ऐसे समर्पण को भक्ति कहते हैं पत्नी का समर्पन पती की ओर होती है योधा का समर्पन सेनापती की ओर होती है एक शिष्य के हरिदे में गुरु भक्ती होती है ताये सारी भक्तियां एक समान होती है क्या सबको इश्वर की प्राप्ती होती है? नहीं पार्ट मनुष्य जिसके प्रती समर्पित होता है उसी के रूप में ढलने लगता है उसके मन में कोई संदेह कोई प्रश्न जन नहीं लेता किसी दुष्ट के प्रती समर्पण उस मनुष्य के कार्यों को दूशित कर देता है अंगराज कर्णे धर्म को जानते हुए भी द्यूद सभा में पांचाली को अपशप्त कहे थे जो पाँच पुरुषों के साथ सम्मंद रखती है वैश्या होती है इस इस्त्रियां उसका कारण था अंगराज का भ्राता धुर्योधन के प्रती समर्पन इस युद्ध में उन्हें जो दंड मिलेगा वो किसी जन्म या जाती के लिए नहीं अथवा एक दुष्ट के प्रती समर्पन के लिए उन्हें दंड मिलेगा। इसलिए हेदनन्जय समर्पन उत्तम के प्रती होना आविश्यक है। उसी से मनुष्य उत्तम बनता है। लोहे की माला से अपराधी बांधा जाता है। बीतल की माला से मंदिर के दीपक को बांधा जाता है। और सोनी की माला को आभुशन बनाकर गले में धारन किया जाता है। पती भक्ती, स्वामी भक्ती, मित्र भक्ती ऐसी अनेक भक्तियां होती हैं पार्थ। किन्तु सबसे श्रेष्ट भक्ती तो परमात्मा की भक्ती होती है। परमात्मा की भक्ति का सांख्य अथवा कर्म योग से क्या संवन्द है? सांख्य योग के कारण मनुष्य स्वेम को आत्मा के रूप में जानता है कर्म योग से वो जीवन के बंधनों से छूट जाता है और भक्ती के कारण मनुष्य को परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होता है। परमात्मा के ज्ञान से मनुष्य जनम मरन के फेरों से छूट कर सचिदानन्द स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। परमात्मा में समाकर स्वैम परमात्मा हो जाता है। जैसे जल की छोटी सी बून जब सागर में मिलती है। प्रत्यों स्वेम सागर बन जाती प्रत्यों स्वेम सागर बन जाती प्रत्यों स्वेम सागर बन जाती इस शरीर का कोई महत्व ही नहीं है माधा अवश्य महत्व है पार्थ शरीर के माध्यम से ही मनुष्य को परमात्मा का साख्षातकार होता है प्रत्यों और नई जन के बीच के समेम आत्मा के ज्ञान में वृद्धी नहीं हो पाती। इस जन्में प्राप्त, अनुभव, ज्ञान, विचार और अभ्यास को लेकर आत्मा नया शरीर धारण करती है। आत्मा की प्रगती और अधुगती शरीर में रहकर ही संभव है। परन्तु माधव यहाँ उपस्तित व्यक्तियों का वद्ध करके, क्या हम उनके उद्धार की संभावना को नश्प नहीं कर देंगे?
हारे शत्रु धर्म की मर्यादा को तोड़ चुके हैं बार्थ, अधर्म ही उनका स्वभाव बन गया है। उनका उठार अब असंभव है। अपराधी को एक सीमा तक ही उठार का आफसर दिया जा सकता है। मैंने शिशु पाल के 99 अपराधों को शमा किया था। किन्तु 100 अपराधों के बश्चात उसे दंड देना अवश्यक था। प्राधी को यदि अपराध करने दिया जाए, तो उसका अधिक से अधिक पतन होता। उसे अधर्म से रोकने में ही करुणा है धनन्जे। ये आत्माएं मरेंगी रहीं अधर्म से दूशित शरीर का त्याग करके नया शरीर धारण करेंगे और उस शरीर में उनकी प्रगती की संभावना अधिक होगी इस विचार से यदि तुम युद्ध करोगे तो वो उचित है मनुष्य का शरीर उसकी संपत्ती भी है और मरियादा भी है धर्म के मार्ग पर प्रवास करने वाला मनुष्य अपने शरीर को शुद्र करता है और उसके माध्यम से आत्मा का साख्षात कार करता है इसी को शेत्र शेत्रग्य संबंद कहा गया है मैं इसका तात्परे नहीं जान पाया माधब जब मनुष्य ये जान लेता है कि उसका शरीर एक भूमी का टुकडा है अर्थात शेत्र है और वो शरीर में रहने वाला उस शरीर को समझने वाला अर्थात शेत्रग्य है तब वो शरीर के माध्यम से अपनी प्रगती साध पाता है आत्मा शरीर में रहे कर तीन गुणों का सम्तोलन करती है। तमस्त को घटा कर सम्तोलन करती है। उनको बढ़ाने का उपाय करती और इश्वर की भक्ती करके परमात्मा के साथ एक हो जाती भक्ती कैसे की जाती है मात्रा क्या समर्पण ही भक्ती नहीं नहीं पार समर्पण तो भक्ती का प्रथम चरण है वास्तव में भक्ती किसी कारे का नाम नहीं वो तो केवल मनस्थिती का नाम है। आवश्यक है कि मनुष्य जब तब यग्य याग यम नियम योग और स्वध्याय के माध्यम से अपने अंतर को शुद्ध करें और परमात्मा के प्रती समर्पित रहें। मनुष्य अपने सारे कार्य, सभी कार्यों के फल अपने जीवन का प्रतेक श्वास परमात्मा को समर्पित करता रहें। प्रति भक्ति केवल मन की स्थिती हैं तो जब तब आदी का क्या महत्व है मान जैसे आज धोया हुआ पात्र कल पुना मैला हो जाता है वैसे ही मनुष्य का मन बार परमात्मा से विमुक हो जाता है इसलिए आविश्चक है कि जब तब और स्वाधाय आदी के माध्यम से स्वयम को निरंतर ये स्मरन दिलाता रहें कि उसका जीवन परमात्मा के प्रती समर्पित है। किस तट पर डुप्की लगाई जाए इसका महत्व नहीं, महत्व है डुप्की लगाने का। भक्ति योग का एक हिसार है पार कि मनुष्य परमात्मा को अपना जीवन अरपण करके परमात्मा की भक्ति करता रहें। और सत्व गुण से युग्द संपत्ती को संभाल कर रखें। सत्व गुणी संपत्ती किसे कहा जाता है मानिता? अहिंसा सत्यम क्रोधस्त्यागः शान्तिही बेशुनम् दया भूतेश्वलो लुप्त्वम् मार्द्वम् रीरचापलम् देज़ा शमाध्रती शोचम् द्रोहो नाति मानिता। भवन्ती संपदम देवी अभिजातस्य भारत बिना कारण तथा स्वार्थ के हेतु हिंसा करना अधर्म है पार्ट वास्तव में अहिंसा ही परमधर्म है और उसके साथ सत्य प्रोध ना करना ध्याग मन की शान्ति निंदा ना करना दया भाग सुक्के प्रती आकर्षित ना हुना, बिना कारण कोई कारे ना करना, देज, शमा, धैर, शरीर की शुद्धता, धर्म का ध्रो ना करना, तथा अहंकार ना करना, इतने गुणों को सत्वगुणी संपत्ती या देवी संपत्ती कहा जाता है, इसी से मनुष्य परमात्मा की, अ जीवन के कर्तव्यों का वहन करता है, धर्म की स्थापना करता है, और धर्म के फल की आशा का त्याग करके जीता है, उसे मैं निस्संदेश इस जन में संतोष देता है, और मृत्यू के पश्चात अपने ही अंतर में स्थान देता है। आपका रूप कैसा है माधा? शांक योग के माध्यम से मैंने ये जाना कि मैं एक आत्मा हूँ अमर हूँ और इस नश्वर शरीर में केवल कुछ समय के लिए वास करता हूँ कर्म योग के माध्यम से मैंने ये जाना कि जो फल की इच्छा का त्याग कर केवल कर्म करता हूँ उसे जीवन में शान्ती और सफलता प्राप्त होगा। भग्धियोग के माध्यम से आने आपके प्रति समर्पन का महत्व जानते हैं। पर्दु माधव, आपने कहा था यहाँ हर स्थान पर मनुष्य नहीं। किवल परमात्मा कि दूसरे अपने मुझे यहां केवल मनुष्य दिखाई दे रहें केवल मनुष्य मात आरायना स्कृत्या नगम चैवार नरुकामा देविं सरस्पतिं यासम ततो जयम मुतिया ना जाया मैं आपके वास्तव एक रूप का द्रशन करना चाहता हूँ माधाबू आपकी शक्ति, आपका ज्ञान, पेज, रेश्वरे सियुग, वर्मात्मा सरूप को तत्यक्ष देखना चाहता हूँ मात्र। तुझे अपने अविनाशी सरूप का दर्शन दीचे मात्र। मेरे सारे संदेही नष्ट कर दिया जिदर्शन दीजिये मार देखो पा कर दो प्रती भारता अप्युख भानम धर्मस्या तदार्मानम सिजाम्यहम। श्विष्ट प्रश्चन ओ गंबरी नमः प्रशान ओम पश्चमे बातरू पाणी शत्शोथ सहश्चाणा विधाना विधानी ज़रीज़ा ओम मेरे विश्व रूप का दर्शन करना ही वास्तविक ज्ञान है अर्जुन। यही एक ज्ञान है, जो विश्व में सारे ज्ञानों तथा विज्ञानों का आधार है। यही ज्ञान मुक्ती प्रदान करता है। देवताओं को भी जो दशन सरलता से प्राप नहीं होते ऐसा वास्तविक रूप मैं तुम्हें दिखा रहा हूँ अर्जन प्रिथ्वी के कण में वास करता हूँ और ये प्रिथ्व सूर्य चंद नकशत्र और तारा मंडल मेरे भीतर वास करते हैं मैं ही सत्य हूँ मैं ही संपूर्ण हूँ मैं ही जीव और मैं ही शिव अक्षों में अकार, वेदों में साम देव, देवों में इंद्र, प्राणियों में चेतना, यक्षों में कुबेर, रूद्रों में शंकर, बसुओं में अगनी, परवतों में सुमेरु, और रिशियों में भ्रिगु बनियों में ओमकार, यग्यों में जाप, और विरिक्षियों में पवित्र बीपल, बुद्धी में स्मृति, मेधा, धृति, और ख्षमा, मैं ही हूँ, कीरती मैं ही हूँ, गंधर्वों में चित्र रथ हूँ, देवर्शियों में नारत और मुनियों में कपिल अश्वों में उच्छे शवा, फाथियों में एरावत और पश्वों में सिंग, पक्षियों में गरुण, मनुष्यों में राजा और शस्त्रों में वज्र गायों में काम धेनु, सर्पों में वाग्रु शेष नाग यम राज वरुन देव और वायू भी मैं ही भगवान राम पवित्र गंगा सृष्टी में आदी मध्य थता अंत भी मैं ही ब्रह्म विद्या, महाकाल और ब्रह्मा, प्रभा, विजे, सत्व, निष्चे, तंड, शक्ति, नीति, मौन तथा तत्व ज्ञान भी मैं हूँ वासुदेव, अर्जुन वेद व्यास ऐसा कुछ भी नहीं जो मैं नहीं हूँ ऐसा कोई स्थल नहीं जहां मैं नहीं हूँ मैं ही समय हूँ और मैं ही जीवन और मृत्यू हूँ अर्जुन यहां उपस्थित सभी मनुष्यों की मृत्यू बन कर खड़ा हूँ तुम यदि शस्त्र नहीं उठाओगे तब भी मैं इन सब का वध कर दूँगा इसलिए मोह का त्याग करो और अपने कर्तव्य को देखो धर्म का भार उठाओ गाणी उठाकर शर्षंधान करो युद्ध करो अर्जुन, युद्ध करो हे मात्रों, हे मदुसूधन आज मेरे सारे संदेहों का नाश हो गया तृपे अपने मनुष्य रूप में आ जाई मैं आपके प्रतेक आदेश का पालन करूँगा करिश्य वचनंतवा पीप्रिष्ण गोविंद अरेबुरारी एरात आरारवासु देवा पीप्रिष्ण गोविंद अरेबुरारी गोविंद अरेबुरारी पेवा तिरिकड़ तिरि पार्थस्य धना जया ओ जस्य बनवीया वेद वहन गुलावेश बहाबाः अर्जुना हम उरुशोत्नम सब्यसाची धर्शना दिवधारी शक्तिमान कीर्दिमान महनायक अर्जुना अहायोता अर्जुना व्यर्थ चिन्ता है जीवन की, व्यर्थ है मृत्यू का भए, आत्म को ना मार पाते, शस्त्र अगनी आसमे पंच भूतों की बनी एक देह केवल वस्त्र है। पंच भूतों की बनी इन देह केवल वस्त रहें आत्म का जो वास्तविक है यहर कहीं अन्यत्र है इश्वर स्वयं है सृष्टि सारी कहा उसको खोजना जो भी होता शुभी होता जगल सीखी योजना पेडल धर्म है व्यर्थ चिंता है जीवन की व्यर्थ है मृत्यू का भए आत्म को ना मार पाते शस्त्र अगनी आसमे