Transcript for:
Amul: The Success Story of Farmers

अमुल ये सिर्फ एक ब्रांड नहीं है बलकि हमारे लाइफ का एक पार्ट है सुबह की चाय से लेकर बच्चों के फेवरेट बटर तक अमुल हर घर का हिस्सा बन चुका है लेकिन अमुल सिर्फ स्वात का नाम नहीं है ये 36 लाग से ज़्यादा किसानों के लिए माई बाप है जो उनकी मेहनत का असली हक उन्हें दिलाता है क्योंके किसान पॉलसन जैसी कमपणियों के एक्स्प्लोटेशन से इतने परिशान थे कि जान तक देने को मजबूर हो गय थे लेकिन फिर किस तरह से गुजरात के आनंद गाउं से एक रिवोलूशन शुरू हुआ जिसने ना सिर्फ इन किसानों की किस्मत बदली बलकि पूरे भारत को एक नई पहचान दिलाई आज का ये वीडियो भी आपको लेकर जाएगा उसी क्रांती के सफर पर और हाँ अमुल गरल की कहानी सुनी है आपने नहीं ना तो दोस्तों अमुल के इस कहानी की शुरुवात होती है 1940 से जब भारत के गाओं में किसान अपनी गाय भैस का दूद बेच कर गुजारा करते थे सुबह महिलाएं उठती, पश्वों की सेवा करती, दूद निकालती और फिर किसान उसे बेचने निकल जाते। असल में किसानों के पास और कोई दूसरा आप्शन भी नहीं था क्योंकि किसान को हर हाल में वो दूद बेचना ही था नहीं तो अगले दिन तक तो वो खराबी हो जाता और इसी का फाइदा उठाते हु� दूद को बहुत कम प्राइस पर खरीदते थे जिससे उनको तो काफी प्राफिट होता था लेकिन फिर उसी टाइम यानी 1945 में ब्रिटिश गॉर्मेंट बॉंबे मिल्क स्कीम लेकर आई जिसके बाद किसानों को अपने साथ होने वाला फ्रॉट समझ में आने लगा असल में इस स्कीम के तहट किसानों से दूद खरीद कर गुजरात के आनन्द शहर जो कि ब्रिटिश काल में काइरा डिस्ट्रिक के अंदर आता था वहां ले जाकर के पॉस्चराइस किया जाता था और फिर जल्दी से उसे ठंडा कर दिया जाता है जिससे कि दूद में मौझूद हामफुल बैक्टेरिया खत्म हो जाते हैं और फिर इस दूद को ज्यादा टाइम के लिए स्टोर किया जा सकता है अब आनन्द शहर में इस प्रोसेस को पूरा करने के बाद से दूद को 427 किलोमेटर दूर बॉंबे पहुचाना पड़ता था और इसका टेंडर मिला था पॉल्सन कमपणी को अक्चुली पॉल्सन कमपणी दूद से बटर और घी जैसे प्रड़ाट्स बनाती थी ब्रिटिस ओफिसर्स और भारत के अमीर लोग किया करते थे। अब ब्रिटिस गॉर्मेंट ने गुजरात के मिल्क प्रोड़क्शन और डिस्टिब्यूशन का सारा कंट्रोल पॉल्सन डेरी को दे रखा था। इसलिए किसानों को मजबूरन दूद इसी कंपनी को ही इतनी खराब थी कि अगर market price 5 रुपे पर लिटर था ना तो फिर किसानों को सिर्फ 1 या 2 रुपे पर लिटर में दूद बेचना पड़ता था ये पूरी तरह से एक तरफा सौदा था क्योंकि किसानों के पास ना तो कोई negotiation power थी और ना ही कोई दूसरा खरीदार और दोस्तों ये exploitation यही पर खत्म नहीं होता था किसानों को अपना दूद collection center तक पहुचाने का खर्चा भी खुदी उठाना पड़ता था और अगर quality में थोड़ी भी कमी निकली तो फिर payment ही नहीं दिया जाता था जिसके चलते काइरा district के किसानों की हालत बताओ बच से बत्तर होती जा रही थी और बहुत सारे फार्मर्स आत्महत्या करने को मजबूर हो गए। त्रिभूवन दास पटेल उस समय कैरा जिले के एक रिस्पेक्टेड लीडर थे जो हमेशा किसानों के अधिकार के लिए आवाज उठाते थे। सरदार वलबभाई पटेल को किसानों का मसीहा माना जाता था अब उनके पास बले ही कोई सरकारी पद नहीं था लेकिन उनकी बात पूरे देश में सुनी जाती थी यहां तक कि उनके नाम से ही अंग्रेजों के पसीने छूट जाते थी सरदार पटेल ने किसानों को समझाया और एक कोअपरेटिव कमेटी बनानी होगी इसका मतलब यह था कि अब किसान खुद अपनी डेरी चलाएंगे और इस पूरे प्रोसेस में कोई मिडल मैन नहीं होगा जिससे कि पूरा प्रॉफिट किसानों की बीच ही बाटा जाएगा सरदार पटेल ने उन्हें यह भी समझाया कि अगर वो मिलकर काम करेंगे तो फिर वो पॉल्सन को बाइपास करके अपना दूद सीधे बॉंबे की मिल्क डिविजन को भेज सकते हैं और स्वतंतरता सेना ने मोरारजी देसाएं को खेडा जिले में भेजा जी हाँ वही मुरारजी देसाई जो आगे चलकर भारत के प्राइम मिनिस्टर भी बनाये गए सरदार पटेल ने मुरारजी से कहा कि अगर जरूरत पड़े तो किसानों के लिए स्ट्राइक करवाने से भी पीछे नहीं हटना वहाँ आने के बाद से मुरारजी देसाई ने 4 जनवरी 1946 को समरखा गाउं में एक मिटिंग रखी जिसमें डिसाइट किया गया कि जिले के हर गाउं में एक कोपरेटिव कमेटी बनाई जाएगी और किसान सिर्फ उसी को ही अपना दूद बेचेंगे यहाँ तक कि किसी भी कमपणी या खुद ब्रिटिश गॉर्मेंट को भी अगर दूद खरीदना होगा तो उन्हें इस कमेटी से अग्रिमेंट करना पड़ेगा और अ अब जैसा कि सबको उम्मीद थी ब्रिटिश गौर्मेंट को किसानों का ये बदला रूप बिल्कुल पसंद नहीं आया उन्होंने स्ट्रिक्टली इस तरह की किसी भी कॉपरेटिव कमेटी को एप्रूवल देने से साफ इंकार कर दिया लेकिन इस बार किसानों ने भ अब वो इस अन्याय को नहीं सहेंगे। इसलिए उन्होंने हर्टाल करते हुए दूध की पुरी सप्लाई बंद कर दिये। ब्रिटिश गौर्मिंट ने भी इस आंदोलन को कुछलने के लिए हर संभव कोशिश की। किसानों को डराने धमकाने के लिए उन पर जुठे म किसानों की एकता इतनी मजबूत थी कि उन्होंने हर धंपकी का डट कर सामना किया। हरताल को 15 दिन बीद गए और इस बीच दूद की सप्लाई रुकने की वज़ा से सरकार की बॉंबे मिल्क स्कीम पूरी तरह से फेल होने लगी। वैसे इस बीच फार्मर्स को भी काफी लॉस हुए थे लेकिन उन्होंने हिम्मत बनाय रखी और इस प्रोटेस्ट में जीत हासिल की। इसके बाद जून 1946 को काइरा डेस्टिक कॉपरेटिब मिल्क प्रडियोसर्स यूनियन लिमिटिट की स्थापना हुई और इसके 6 महिने बाद यानी 19 दिसंबर 1946 को इसे फॉर्मली रेजिस्टर किया गया इतना ही नहीं 1948 तक इस कॉपरेटिब कमेटी ने चाहे उनकी जात धर्म या फिर फाइनेशल कंडिशन कैसे भी हो इस विजन को सही तरीके से इंप्लिमेंट करने के लिए त्रिबू अंदाजी ने एक थ्री टायर स्ट्रक्चर डिजाइन किया पहला गाउं में डेरी को अपरेटिव बनाई गई जहां दूद को एकठा किया जाता था और उसकी क्वालिटी की जाच की जाती थी 1948 के अंतटक करीब 432 किसान इस कॉपरेटिव का हिस्सा बन चुके थे और हर दिन करीब 5000 लिटर दूद की सप्लाई हो रही थी अगले कुछी सालों में किसानों की संख्या और दूद का प्रड़क्षन कई गुना हो गया हालात ऐसी हो गई थी कि बॉंबे मिल्क स्कीम भी इस दूद को एब्जॉर्ब नहीं कर पा रही थी क्योंकि भैस इस सीजन में गर्मियों के मुकाबले ढाई गुना ज्यादा दूद देती हैं और अब हैवी प्रोड़क्शन और लो कंजब्शन की वज़ा से किसान इतनी परिशान रहने लगे कि उन्होंने फिर से ओने पौने दामों में बिचौलियों को अपना दोध बेचना शुरू कर दिया। और अब सबसे बड़ा चैलेंज था कि इतने सारे एक्स्ट्रा दोध का किया क्या जाए। लेकिन तब इस प्रॉबलम का सलोशन लेकर आए डॉक्टर वर्गिस कोरियन जिन डॉक्टर कोरियन एक विजनरे इंसान थे जिनोंने 1949 में अमेरिका से मेकानिकल इंजिनेरिंग में मास्टर्स के डिग्री कम्पलेट की थी पढ़ाए खत्म हो जाने के बाद से उन्हें सरकार ने गुजरात के आनंद में एक सरकारी डेरी में काम करने के लिए भेजा अब शरुबात में तो डॉक्टर कोरियन इस एसाइमेंट से खुश लेकिन यही उनकी मुलकात हुई त्रिभूवन दास पटेल से और फिर जब त्रिभूवन दास ने डॉक्टर कोरियन को किसानों की परिशानिया समझाई तो वह तुरंट समझ गए कि अगर दूद की बरबादी रोकनी है और किसानों को फैदा पहुचाना है ऐसा करने से दूद को ना केवल लंबे समय तक स्टोर किया जा सकता था अब दोस्तों बटर बनाना तो आसान था लेकिन मिल्क पाउडर के साथ एक बड़ी प्रॉबलम यह थी कि आम तोर पर मिल्क पाउडर गाय के दूद से बनाया जाता था जबकि गुजरात में किसानों के पा और भैस के दूद से मिल्क पाउडर बनाने के लिए उनके पास कोई टेकनॉलजी मौजूद नहीं थी लेकिन डॉक्टर कोरियन ने यहां भी हार नहीं मानी उन्होंने अपने दोस्त हरी चंद मेघा दलाया जो मिशिगन से डेरे टेकनॉलजी में मास्टर्स कर चुके थे उनसे मदद मागी और फिर हरी चंद दलाया ने अपनी एक्सपर्टाइस के इस्तमाल करते हुए दुनिया का पहला बफेलो मिल्क स्प्रेड रायर तैय ये एक बड़ी टेक्निकल सक्सिस थी जिसने पहली बार भैंस की दूद से मिल्क पाउडर बनाने का रास्ता खोल दिया था ये इनोवेशन ना केवल किसानों के लिए एक वरदान साबित हुआ बलकि इसने डेरे इंडरस्क्री में भारत को एक नई पहचान दिलाई और फिर 31 अक्टूबर 1955 को सरदार पटेल के जन्मदिन पर इस कॉपरेटिव सोसाइटी ने अपना पहला मिल्क प्लांट खोला जो की इंडिया ही नहीं बलकि पुरे एशिया का सबसे बड़ा मिल्क प्लांट था क्योंकि इसकी डेली कैपेसिटी एक लाख लीटर दूद प्र अब जब ये तैह हो गया कि इस कॉपरेटिब में किसानों के दूद से अलग-अलग तरह के डेरी प्रोड़क्ट्स बनाए जाएंगे तो फिर इन प्रोड़क्ट्स के पहचान के लिए एक ब्रैंड नेम की भी जरूरत महसूस हुई और फिर इसके लिए नाम सेलेक्ट किया रहा था और दूसरी वज़ा थी कि अगर आप आनन्द मिल्क यूनियन लिमिटेट का सॉट फॉर्म निकालेंगे तो फिर वो भी अमुली बनता है लेकिन दोस्तों अमुल का सफर अब भी इतना आसान नहीं था क्योंकि अमुल का बटर लॉंच होते ही एक बहुत बड़ा फे बड़ी वजह थी उस टाइम मार्केट में पहले से मौजूद पॉल्सन का बटर असल में पॉल्सन के बटर को पुरानी बासी क्रीम से बनाया जाता था जिसे बिना रेफरेजरेशन के एक हप्ते तक बाहर रखा जाता और इस प्रोसेस की वजह से क्रीम में खटास आ जाते थी और पॉल्सन के बटर का स्वाद बहुत अलग होता था जिससे कि उसका स्वाद नमकीन हो जाता था और एक और बड़ी बात ये थी कि पॉल्सन का बटर गाय की दूद से बनाया जाता था जिससे कि उसका रंग हलका पीला होता था और दोस्तों लोगों को पीले और नमकीन पॉल्सन बटर की मानो आदत से पड़ चुकी थी लेकिन जब अमूल का बटर लॉंच हुआ ताजा क्रीम से उसी दिन ही तैयार किया जाता था जिसके वज़ा से इसमें किसी भी तरह की खटास नहीं होती थी और इसका स्वाद भी बिना नमक वाला था इसके साथ ही भैंस के दूद से बने अमूल के बटर का रंग भी सफेद था और फिर दोस्तों पॉल्सन के आगे अम और साथ ही कमपनी ने थोड़ा सा रंग डाल की अपने बटर का कलर भी पिला कर दिया हाला कि डॉक्टर वर्गिस कोरियन को ये बदलाव बिलकुल भी पसंद नहीं आया क्योंकि वो हमेशा ताज़गी और क्वालिटी पर जोर दिया करते थे लेकिन धीरे उन्हें ये भी बात समझ आने लगी कि कस्टमर सटिस्फेक्शन और उनकी आदतों का ख्याल रखना भी किसे भी ब्रांड के लिए बहुत जरूरी होता है इन बदलाओं के बाद से अमूल का बटर धीरे लोगों के बीच में पॉपिलर होने लगा और अमूल ने पॉलसन को ना केवल टक्कर दी बलकि उसकी जगह ही छिन ली लेकिन दोस्तों अमुल की सफलता के पीछे सिर्फ फार्मर्स और डॉक्टर वर्गिस कुरियन का हाथ नहीं था बलकि एक प्यारी सी लड़की भी थी जिसे के हम अमुल गरल के नाम से जी हाँ वही डॉटेड फ्रॉक वाली लड़की जिसे आपने अमुल प्रोड़क्ट्स की पैकेट पर जरूर देखा होगा अक्चुली जब अमुल का ब्रांड नेम तैहुआ था उस समय इसकी कोई ठोस आइडेंटिटी नहीं थी लेकिन इस कमी को पूरा किया अमुल गरल ने क्योंकि वो सिर्फ अमुल की पहचान ही नहीं बनी बलकि इंडियन एडवर्टाइजिंग हिस्ट्री में अमर हो गई क्योंकि 1966 में शुरू हुआ ये कैम्पेइन आज भी जारी है और इसे दुनिया के सबसे लंबे समय तक चलने वाले एडवर्टाइजिंग कैम्पेइन में गिना जाता है पैमपेइन का नाम गिनिज वर्ड रिकॉर्ट्स में भी दर्ज है। लेकिन सवाल यह है कि अमूल गर्ल ही इस ब्रांड की आइडेंटिटी क्यों बनी। असल में इस आइकॉनिक कैरेक्टर का जन पॉल्सन की बटर गर्ल के जवाब में हुआ था। उस ताइम पॉल्सन बटर की पहचान एक प्यारे सी लड़की थी जिसे वो बटर गर्ल कहा करते थे। डॉक्टर वर्गिस कोरियन और उनकी टीम ने सोचा कि अगर पॉल्सन अपनी बटर गर्ल के जरीए पहचान बना सकता है। तो फिर अमूल इसी कॉंसेप्ट को ही अपना कर इससे बहतर कर सकता है और तभी एडवर्टाइजिंग प्रोफेशनल सिल्वेस्तर दा कुना और उनकी टीम ने अमूल गर्ल का आइडिया पेश किया पॉल्सन की बटल गर्ल के मुकाबले अमूल गर्ल ने सिर्फ प्रोड़क्ट नहीं बलकि हर रोज की घटनाओं और मुद्दों को मज़ेदार और रिलेवेंट तरीके से पेश किया अरे जजबातों में बाकर हम कहाली में थोड़ा सा आगे लेकिन चलिए 1970s में हम वापस सलते हैं जब अमुल की सफलता ने गुजरात में मानो क्रांती ला दी थी हर जिले में इसी तरह की यूनियन बनने लगी जो की दोध के व्यापारियों को सीधे जोड़ते थे लेकिन डॉक्टर वर्गिस कुरियन को जल्दी समझ आ गया कि अगर ये सारे जिले अपना ब्रैंड बना कर एक दूसरे के साथ में ही कॉंपटिशन करने लगे तो फिर इससे सबको नुकसान होने लगेगा और फिर इसी प्रॉब्लम का ही सलूशन निकालने के लिए 1973 में सरकार ने गुजरात कॉपरेटिब मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन के स्थापना की इस फेडरेशन ने सबी जिलों के यूनियन को एक साथ जोड़ कर अमूल के ब्रैंड नेम के तहट काम करने का मौका दिया इसके कुछ सालों के बाद से पॉल्सन जो कभी इंडियन मार्केट में बटर किंग था में सरकार ने फैसला किया कि डेरी इंडरस्ट्री को पूरी तरह से कोपरेटिव औरगनाजेशन के जरी ओपरेट किया जाएगा. लेकिन इस नई पॉलिसी का सबसे बड़ा असर प्राइविट कमपनीज पर पड़ा, खास करके पॉलिसन के उपर. पॉलिसन इन नए और आखिरकार उसे अपना बिजनस बंद करना पड़ा. इसी दोरान ये दुनिया का सबसे बड़ा जिसके तहत गाउं से दूद को कलेक्ट करके देश के अलग-अलग हिस्सों में सप्लाई किया जाने लगा ये इनिसियेटिव इतना सक्सेसफुल रहा कि इंडिया दुनिया का सबसे बड़ा मिल्क रेडूसर बन गया और दोस्तो अमूल ने ना सिर्फ किसानों को आर्थिक रूप से मज भी fresh और high quality dairy products पहुचाए इस बीच अमूल अपने product portfolio का भी लगातार expansion करता जा रहा था जैसे कि 1980s में अमूल ने cheese और ice cream के segment में भी कदम रखा जिससे कि इसकी reach और भी ज़्यादा बढ़ गई अमूल की popularity 80s और 90s में इतनी ज़्यादा हो चुकी थी इसके नकली products भी market में आने लगे थे क्योंकि कई सारे scammers ने खराब quality के products पर अमूल का label लगा कर बेचना शुरू कर दिया इस प्रॉब्लम से निपटने के लिए अमुल ने स्ट्रिक्ट लीगल आक्शन लिए अपनी पैकेजिंग में होलोग्राम और यूनिक कोट्स आट किये और कंजियूमर्स को अवेर करने के लिए लार्ज स्केल पर कैम्पेइंस भी चलाए असली बटर में दूध मलाई होती है और अ जिसमें दूद मलाई नहीं, वो बटर नहीं, अमूल बटर, असली बटर, आप भी पूछिये अटर पटर है, यह असली अमूल बटर है हलाकि इन चुनोतियों के बावजूद अमूल ने कभी भी अपने एक्सपेशन को नहीं रोका फर एक्सपल, 1990s में इसने फ्लेवर्ड मिल्क जैसे प्रोड़क्स लॉँच किये साथी 2000 के दशक में अमूल कूल, मस्ती बटर मिल्क और हेल्थ फोकस्ट प्रोड़क्स जैसे अमूल प्रोको मार्केट में लाया गया 2010 तक अमूल ने रेडियू टू इट और डेरी बेस्ट डिजर्ट को भी अपने पोर्टफोलियों में शामिल कर लिया अमुल की मैनत और डिटर्मिनेशन का ही ये नतीजा था कि 2010-11 के फाइनेशियल इयर में इसने 2 बिलियन डॉलर सल्स टर्णओवर का मालिस्टोन पार कर लिय इसके ठीक 10 साल बाद जब COVID-19 पैंडमिक ने इंडिया में दस्तक दी उस समय इंडियन इकॉनमी को 10 लाग करोण रुपय से भी ज़्यादा का नुकसान हुआ बहुत सी बिलियन डॉलर इंडरस्टीज इस ताइम मुश्किल में आ गई थी और डेर इंडरस्टी भी उन में से ही एक थी इस क्राइसिस के चलते इंडिया के मिल्क प्रेडियोसर हर दिन करीब 112 करोण रुपय का नुकसान उठा रहे थी लेकिन उस मुश्किल के दौर में भी अमूल एकलोती ऐसी लिजेंडरी कमपनी थी, जिसने ना सिर्फ अपने लोसेस को मिनिमाइज किया, बलकि अपने रेवेन्यू को भी 700 करुण रुपए तक इंक्रेज करके दिखाया. असल में अमूल ने नोटिस किया कि पैंडमिक के दौरान बले ही रेस्ट्रोंट और होटल से आने वाली डिमांड खत्म हो गई थी, लेकिन घरों में मिल्क प्राड़क्स की कंजप्षन में काफी ज़्यादा इजापा हुआ खुले दूद की जग़ा पर पैकेज्ड मिल्क की तरब शिफ्ट होने लगे और फिर इनी सभी चांसेस को अमूल ने दोनों हाथों से कबूल किया अब दोस्तों अगर हम आज अमूल की बात करें तो इसकी सप्लाई चैन बहुती बड़ी और वेल औरगनाइज्ड 700 सोसाइटीज हैं जो कि दूध के कलेक्शन और डिस्ट्रिबूशन को समभालती हैं साथी 5000 मिल्क टांकर्स हर दिन 200 चिलिंग स्टेशन तक दूध पहुचाते हैं आज अमुल के साथ 36 लाग से भी ज़्यादा किसानों का डारेक्ट कनिक्शन है और ये भारत के अलामा 50 से बीज ज़्यादा देशों में अपनी डेरी प्राड़क्स को एक्सपोर्ट कर रहा है लेकिन दोस्तों अंत में बस मैं यही कहना चाहता हूँ कि अमूल सिर्फ एक डेरी ब्रैंड नहीं है बलकि उन लाखों किसानों की मेहनत और संघर्ष की कहानी है जो अपने और अपने परिवार के भविश्य को बहतर बनाने के लि�