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Tezpur and the India-China War of 1962

[संगीत] [संगीत] जो कहानी हम आपको सुनाने वाले हैं उसके लिए तेजपुर शहर की कहानी सुनाना बहुत जरूरी है यह शहर एक रात में खाली हो गया लेकिन खाली होने से पहले यहां क्या-क्या हुआ क्यों हुआ और कैसे हुआ ये देखिए अरे जल्दी करो जल्दी अरे क्या कर रहे हो यार सॉरी स जल्दी जल्दी जल्दी आ जाओ जल्दी आओ जितने रोट है सारी थालिया मार लो और सारी बैटिया मार ले चलो स लो बे के अंदर लेकिन सर ऐसा बाहर क्यों सारे ट जलाने चली कर उठाओ वहां से जल्दी आओ वो भरी बेटिया बाहर लेके जाओ ल म को चेक करो वो भरी बेटिया बाहर लेके जाना वहां से [संगीत] निकालो यह बैंक लूटा नहीं गया इस डर से कि हिंदुस्तानी नोट चीनियों के हाथ ना पड़ जाएं बैंक मैनेजर ने पूरी करेंसी पूरी नोट मंगवा करर जला दिए हां डालो डालो जल्दी करो बे के सारी नोट निकाल के डाल दो उसमें नोट तो सारे हमने जला दिए उन कॉइंस का क्या करेंगे लेकिन उस वक्त सिक्कों की भी बहुत कीमत होती थी और सिक्के तो जल नहीं पाते तो बैंक मैनेजर ने पूरे सिक्के बोरियों में भरवा दिए शहर के बीच में एक तालाब था और सारी बोरिया उसमें डुबा दी नवंबर 19 62 यह जो आपने देखा वो तो तेजपुर शहर की एक ही मिसाल है वहां और क्या हुआ वहां के लोगों ने क्या देखा उन्होंने क्या बगता ये अब आप उन्हीं के मुंह से सुनिए उस टाइम में चाय बागान के अंदर में मैनेजर था हमने सुना कि वो लोग जो है यहां फटल्स में मसमारी के पास में फुटल है वहां पर आ गए हैं फिर उस टाइम में ऐसा लगा कि अब यहां पर शायद रहना सेफ नहीं हो सकता है तो उस वक्त फिर हम लोग जो है यहां से रात में इकट्ठे होकर सवेरे मॉर्निंग में यहां से हम लोगों को ले जाया गया रास्ते में रोका पुला वो कहां जा रहे हैं हमने कहा हम तो तेजपुर जा रहे हैं बोले नहीं नहीं तेजपुर मत जाइए हम लोग तो तेजपुर से वापस आ रहे हैं वहां तो चाइनीज आने वाले हैं लगा कि यहां एडमिनिस्ट्रेशन नहीं है कोई भी एसपी डीसी सब यहां से छोड़कर चले गए हैं स्टेट बैंक का पता लगा स्टेट बैंक सा सुना ऐसा कि भा उन्होंने नोट वगैरह जो थे करेंसी वो जला दी है तेजपुर में यह सब इसलिए हो रहा था क्योंकि लोगों को चीन की फौज का डर था यहां के बाशिंदों को लग रहा था कि किसी भी वक्त उनके शहर पर चीन का कब्जा हो जाएगा 20 अक्टूबर 1962 से ही भारत और चीन के बीच युद्ध चल रहा था और इसी दौरान प्रधानमंत्री नेहरू के एक ऐसे भाषण को लोगों ने सुना जिससे उनका डर और भी पक्का हो गया ऐसा लगने लगा कि तेजपुर शहर ही नहीं बल्कि पूरे नॉर्थ ईस्ट पर ही चीन का कब्जा हो सकता है इस वक्त कुछ आसाम के ऊपर आसाम के दरवाजे पर दुश्मन है और आसाम खतरे में है इसलिए खास तौर से हमारा दिल जाता है हमारे भाइयों बहनों पर जो आसाम में रहते हैं उनकी हमदर्दी में क्योंकि उनको तकलीफ उठानी पड़ रही है और शायद और भी तकलीफ उठानी पड़े हम उनकी पूरी मदद करने की कोशिश करें और करेंगे लेकिन कितने ही हम मदद करें हम उनको तकलीफ से नहीं बचा द और असाम खतरे में है इसलिए खास तौर से हमारा जिस तकलीफ की चर्चा प्रधानमंत्री नेहरू कर रहे थे वह सिर्फ असम के लोगों की ही नहीं [संगीत] थी इसकी शुरुआत हुई 192 अक्टूबर की दरमियानी रात इसी रात चीन ने भारत पर हमला किया 20 तारीख की सुबह स्टैंड टू होता 430 पौ के बीच में हम लोग स्टैंड टू के लिए उठे बाहर निकले अपने ट्रेंच बंकर से उसी वक्त शेलिंग शुरू हुआ पहला शल गिरा हु प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लड़ाई शुरू होने के दो दिन बाद देश के नाम पहला संदेश दिया भाइयों बहनों साथियों और हम वतन हमारे सीमा पर जबरदस्त हमले चीनी फौजों ने किए हैं और करते जाते हैं जहां के बहुत ताकतवर दुश्मन जिसको जरा फिक्र शांति की थी शांति के तरीको की उसने हमें धमकी दी और उस धमकी पर अमल भी किया इसलिए वक्त आ गया है कि हम इस खतर को पूरी तौर से समझे आजादी को सिर्फ 15 साल हुए थे हमारे देश की उत्तरी सीमा पर एक बहुत बड़ा देश चीन उसके साथ हिंदुस्तान पूरी कोशिश कर रहा था चाह रहा था कि गहरे रिश्ते रहे गहरा संबंध रहे लेकिन आहिस्ते आहिस्ते चीन और हिंदुस्तान के बीच दुश्मनी बढ़ती ही जा रही थी अब तो ऐसा लग रहा था जैसे चीन हिंदुस्तान पर हमला करने वाला है और हिंदुस्तानी फौज इस हमले के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी बीजी वर्गीज जो उस वक्त के वर कॉरेस्पोंडेंस थे पत्रकार थे वह लड़ाई से 10 दिन पहले हिंदुस्तानी फौज की तैयारियों का जायजा लेने अरुणाचल प्रदेश के तवांग इलाके में पहुंचे यह अक्टूबर की बात है अक्टूबर और नवंबर और काफी ऊंचा है 15 16 हज फीट बहुत ठंड वह शर्ट स्लीव्स में या एक हल्का से पुलओवर पहन के जिम शूज सॉक्स से काम वो कर रहे उनके पास सब चीज की कमिया थी रिटायर्ड ब्रिगेडियर एसपी श्रीकांत तब मेजर हुआ करते थे और तब के नेफा के धौला फ्रंट पर सेना की एक टुकड़ी की कमान संभाल रहे थे [संगीत] लड़ाई के शुरुआती दिनों में ही साफ हो गया था कि हिंदुस्तान की फौज चीन का सामना नहीं कर सकती थी और देखते ही देखते उत्तर पश्चिमी क्षेत्र यानी लद्दाख के चुशूल में रेजांगला और पूर्व में नेफा के तवांग से लेकर बम डिला तक चीनी सेना ने अपना लाल झंडा गाड़ दिया भारतीय फौज तितर बितर हो गई लड़ाई के 30 मेंें दिन जवाहरलाल नेहरू ने फिर से देश के नाम संदेश दिया इस रेडियो ब्रॉडकास्ट को कई लोग हार का औपचारिक ऐलान मानते हैं सीला एक पास है पहाड़ है बीला के ऊपर तवांग और बीला के बीच में और बमला भी हमारे हाथ से निकल गया रंज हुआ इसको सुनकर रंज हुआ कि हमारी फौज को हटना पड़ा वहां से इसके माने यह हैं कि जो लड़ाई हमारी हमारे सामने है उसको हमें जारी रखना है थोड़े दिन नहीं बहुत दिन महीनों नहीं सालों रखना है जारी हम लड़ते जाएंगे और अगर बीच में कहीं कहीं हारे तो उससे हम और ताकत पकड़ेंगे और और आगे बढ़ेंगे प्रधानमंत्री नेहरू ऊपरी तौर पर देश को लंबी लड़ाई के लिए तैयार कर रहे थे लेकिन चीन ने नेहरू को दोबारा लड़ने का मौका ही नहीं दिया 20 नवंबर की रात चीन में भारतीय एंबेसडर को वहां के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने बुलाया और कहा कि आधी रात से चीन की सेना सीज फायर कर देगी और हफ्ते भर बाद लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल के 20 किमी पीछे चली जाएगी चीन के एक तरफा ऐलान के साथ ही लड़ाई खत्म हो गई युद्ध तो खत्म हो गया लेकिन उसका घाव हमेशा के लिए रह गया एक महीने तक चले इस युद्ध में भारत बहुत कुछ गवा चुका था चीन ने भारत की 4273 5 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया था यह इतनी जमीन थी जिस पर देश की राजधानी दिल्ली जैसे 28 शहर बस सकते थे भारतीय सेना के 1383 सैनिक शहीद हुए थे और 1047 सैनिक बुरी तरह घायल हुए 1696 सैनिकों का कुछ पता ही नहीं चला और करीब 4000 सैनिकों को युद्ध बंदी बनने की यातना झेलनी पड़ी हम युद्ध हार चुके थे [संगीत] चीन के साथ लड़ाई को 50 साल हो गए लेकिन आज भी हमारे चीन के साथ संबंध उस लड़ाई से प्रभावित है आज भी चीन और हमारे बीच के बॉर्डर में छोटी-छोटी लड़ाइयां होती रहती हैं सवाल यही नहीं है कि यह लड़ाई हम हारे क्यों सवाल यह भी है कि यह लड़ाई हुई क्यों क्या लड़ाई के बगैर कोई फैसला नहीं हो सकता था क्या लड़ाई जरूरी थी और क्या पंडित जवाहरलाल नेहरू जो उस वक्त बहुत बड़े डिप्लोमेट बहुत बड़े इंटरनेशनल स्टेट्समैन माने जाते थे क्या वह चीन के बारे में चुक गए चीन से लड़ाई में हार या लड़ाई की असल वजह क्या है इन दोनों ही बातों के तह तक जाने के लिए साल 1950 की घटनाओं को समझना होगा दोनों देशों का मौजूदा इतिहास कमोबेश एक साथ ही शुरू होता है भारत 1947 में आजाद हुआ और उसके दो साल बाद ही चीन में माउथ से तुंग और चाऊ एन लाय के नेतृत्व में लंबे संघर्ष के बाद पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के नाम से एक साम्यवादी देश बना दोनों देशों का मौजूदा सफर एक साथ ही शुरू हुआ नाइज देर गवर्नमेंट हमने चीन की हिमायत की हमने कहा कि चाइना को यूनाइटेड नेशंस का सदस्य होना है एक बार नहीं अनेक बार माओ के कम्युनिस्ट चीन को भारत ने मान्यता तो दे दी लेकिन उसी चीन ने 1950 में ही एक बड़ी घटना को अंजाम दिया चीन ने भारत और उसके बीच बसे एक अलग आजाद मुल्क तिब्बत पर हमला कर दिया और देखते ही देखते उस पर कब्जा कर लिया चीन ने तिब्बत को अपना एक राज्य घोषित कर दिया तिब्बत के प्रमुख दलाईलामा है दलाईलामा के तिब्बत पर चीन के कब्जे ने दुनिया के भूगोल को हमेशा के लिए बदल दिया तिब्बत के भारत और चीन के बीच में होने की वजह से दोनों देशों में हमेशा फासला रहा था चीन के कब्जे ने उस फासले को खत्म कर दिया और अब तक जो सरहद सिर्फ कश्मीर के एक छोटे से हिस्से तक ही सीमित थी वह बढ़कर आज के उत्तराखंड से लेकर भारत के नॉर्थ ईस्ट तक फैल गई थी साफ था तिब्बत पर चीन के कब्जे का असर सबसे ज्यादा भारत पर पड़ा तिब्बत पर चीन के कब्जे ने भारत की सुरक्षा के लिए नए सवाल खड़े कर दिए प्रधानमंत्री नेहरू के पास ही विदेश मंत्रालय भी था नेहरू ने विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के लिए एक नोट जारी किया भारत और दुनिया की कोई भी ताकत तिब्बत पर चीन के हमले को रोक नहीं सकती उसके बाद चीन भारत पर हमला करेगा यह बात बहुत हद तक गैर मुमकिन है क्योंकि अगर चीन भारत पर हमला करेगा तो तयशुदा तौर पर वर्ल्ड वॉर हो सकता है हां चीन भारत में घुसपैठ करने की कोशिश करेगा और अगर विवादित जगहो पर घुसपैठ हुई तो वहां कब्जा भी हो सकता है भारत को चीन के लोग और वहां के विचार दोनों की घुस पैक रोकने की कोशिश करनी चाहिए और चीन के साथ हमें अपनी दोस्ती में ही सुरक्षा ढूंढनी चाहिए प्रधानमंत्री नेहरू तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद भी सीमा का मामला उठाने के लिए तैयार नहीं थे प्रधानमंत्री की यह सोच थी कि जब तक चीन अपनी तरफ से सीमा का मामला नहीं उठाता उसके बारे में किसी भी स्तर पर बातचीत की जरूरत नहीं है प्रधानमंत्री नेहरू के गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल ऐसा नहीं मानते थे पटेल ने चीन के मामले पर 1950 में एक अहम चिट्ठी प्रधानमंत्री नेहरू को लिखी प्रिय जवाहरलाल नेहरू चीन सरकार ने हमें जाल में उलझाने की कोशिश की है मेरा यह मानना है कि चीन हमारे राजदूत के मन में झूठा भरोसा कायम करने में सफल रहा है कि वह तिब्बत की समस्या को शांति के साथ सुलझाना चाहता है मेरे विचार से यह चीन का धोखा और विश्वास घात है वह असम के कुछ हिस्सों पर भी नजर गड़ाए हुए हैं आवाजाही की दृष्टि से वहां हमारे साधन बड़े ही कमजोर और कम है इसलिए क्षेत्र कमजोर है सभी समस्याओं को बता पाना मेरे लिए थकान भरा और असंभव होगा लेकिन समस्याओं का तत्काल समाधान करना होगा आपका वल्लभ भाई पटेल मुझे लगता है कि पटेल के पत्राचार से बात बिल्कुल स्पष्ट होती है कि चीन के बारे में उनके मन में आशंकाएं थी मगर मुझे ऐसा नहीं लगता कि पटेल अकेले आदमी थे जिसके मन में इस तरह की आशंकाएं थी जितने लोग दक्षिण पंथी कहलाते हैं कांग्रेस में वो गोविंद बल्लभ पंथ रहे हो वो आचार्य कृपलानी रहे हो उन सबके मन में कहीं ना कहीं शुभा चीन को लेकर था मगर उस समय दौर ये था नेहरू को चुनौती देने वाला कोई था नहीं सरदार पटेल का यह खत उनकी दूर अंदाजी की एक मिसाल माना जाता है लेकिन कई स्कॉलर्स का कहना है कि यह खत का पहला ड्राफ्ट गिरिजा शंकर वाजपई ने लिखा जो उस वक्त विदेश मंत्रालय के सेक्रेटरी जनरल थे वाजपई उनके साथी नेहरू के चाइना पॉलिसी से उनके चीन के प्रति पॉलिसी से सहमत नहीं थे नेहरू चीन के साथ सीमा का मामला बॉर्डर इशू उठाने के लिए तैयार नहीं थे उस वक्त हिंदुस्तान के एंबेसडर चीन में थे के एम पकर और नेहरू पकर की राय से बहुत प्रभावित थे लेकिन बाजपाई और उनके साथियों को लगता था कि पकर चीन को सही समझ नहीं पा रहे हैं इन तमाम खींचतान के बीच प्रधानमंत्री नेहरू ने डेप्युटी डिफेंस मिनिस्टर मेजर जनरल एमएस हिम्मत सिंह जी की अध्यक्षता में कमेटी बनाई और चीन के बारे में इससे भी ब ऐलान पार्लियामेंट में किया लद्दाख से नेपाल तक जो सरहद चीन की सीमा से लगती है वह परंपरा और रि वायती इस्तेमाल से तय हुआ हमारे उत्तर पूर्व की जो सीमा चीन से मिलती है इसे मैकमन लाइन ने पूरी तरह साफ कर दिया मैकमन लाइन 1914 शिमला कन्वेंशन में तय हुआ मैकमन लाइन ही हमारी सीमा रेखा है मैप हो या ना हो तब के नेफा और आज के अरुणाचल प्रदेश की जो सीमा चीन से लगती है उसे मैक मेहन लाइन कहते हैं जिसे शिमला में ब्रिटिश इंडिया तिब्बत और चीन ने 1914 में मिलकर तय किया था चीन की कम्युनिस्ट सरकार इसे जबरन तैयार की गई सीमा रेखा मानती है यह जानते बूझ प्रधानमंत्री ने मैक मेहन लाइन को अपनी सीमा घोषित कर दी इससे भी बड़ी घटना तवांग में हुई 12 फरवरी 1951 इसी दिन तवांग में भारतीय प्रशासन ने पहली बार कदम रखा इससे पहले तवांग तिब्बत का हिस्सा था तवांग में जब भारतीय अधिकारी पहुंचे तो कहा जाता है कि उनका जोरदार स्वागत किया गया चीन ने प्रधानमंत्री नेहरू की मैक मेहन लाइन के बारे में घोषणा और तवांग में भारतीय एडमिनिस्ट्रेशन की पहुंच पर कोई प्रतिक्रिया जारी नहीं की लेकिन चीन बिल्कुल चुप था सीमा को लेकर बॉर्डर को लेकर उनके मन में क्या था यह कुछ समझ में नहीं आ रहा था तो हिंदुस्तान ने अपने एंबेसडर के एम पाने करर से कहा कि व जाकर 5 लाई से मिले और यह मीटिंग फरवरी 1952 में हुई एंबेसडर के एम पानी करर चाउ एंड ला से मिलने पहुंचे पानी करर को यह कहा गया कि बाउंड्री को लेकर चीन के रुख का अंदाजा लगाएं और साथ ही यह स्पष्ट कर दें कि तिब्बत पर किसी भी समझौते से पहले बाउंड्री का मसला हल होना चाहिए लेकिन मुलाकात में ऐसा कुछ नहीं हुआ चाऊ ने ट्रेड और सांस्कृतिक रिश्तों को विचार करने की सलाह दी चाऊ के साथ कई मीटिंग के आधार पर पाणिकर ने अपनी राय दे दी जिसने भारत चीन के रिश्ते को हमेशा के लिए एक नया रुख दे दिया हमारी मुलाकातों में बाउंड्री से जुड़े सवाल पर कोई चर्चा नहीं हुई राजनीतिक सवालों की तरफ इशारा भी नहीं हुआ मुझे लगता है कि झावन लाय सीमा को लेकर भारत के पोजीशन को बखूबी जानते हैं और इस मसले पर उनकी चुप्पी का मतलब भारतीय पोजीशन को लेकर मौन सहमति ही हो सकती है भारत चीन सीमा बिल्कुल तय है और उस पर कोई बातचीत की जरूरत नहीं है यह हमारा अब तक का स्टैंड रहा है और इसे बदलने की जरूरत नहीं है नेहरू के विदेश मंत्रालय में कई ऐसे अधिकारी थे जो लगातार इस रुख का विरोध कर रहे थे उनका कहना था कि भारत को खुलकर सीमा मामले पर चीन से चर्चा करनी चाहिए और जब तक कि चीन हमारी सीमाओं को मान ना ले कोई और समझौता नहीं होना चाहिए इस सलाह को दरकिनार कर नेहरू ने अपने विदेश सचिव को नोट भेजा चीन के साथ सीमा से जुड़े सवाल उठाने का वक्त अभी नहीं आया अगर कभी इसकी जरूरत पड़ी खास तौर पर तब अगर हमारे सीमाओं को चुनौती दी गई तो हम अपना रुख साफ कर देंगे बात यही नहीं रुकी 29 अप्रैल 1954 को पे चिंग में भारत ने उस संधि पर दस्तखत कर दिए जिसे पंचशील समझौता कहा जाता है इसमें शांति के साथ-साथ रहने और दोस्ताना संबंध की बात की गई थी िप प इस समझौते की हर तरफ तार हो रही थी हिंदी चीनी भाई भाई के नारे लग रहे थे लग रहा था कि दुनिया की दो बड़ी सभ्यताओं ने साथ रहने की नई मिसाल पेश की है यह फाइव प्रिंसिपल ऑ पीसफुल को एक्जिस्टेंस को दुनिया के सामने रखा था और तब बुंग में सब और बाकी सुकन उन नकमा सब मान गए और य नॉन अलाइन मूवमेंट के एक एक क्या कहते मंत्रा वो बन गए अब तक है हिंदी चीनी भाई भाई के नारों के पीछे कुछ अहम बातें दब गई जिसकी बड़ी कीमत भारत को चुकानी पड़ी भारत जिसे अपनी सीमा मानता था उसे पंचशील समझौते में चीन ने कहीं साफ तौर पर मान्यता नहीं दी थी जबक इस ट्रीटी के जरिए प्रधानमंत्री नेहरू की सरकार ने तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया था और तिब्बत में भारत के जो अधिकार थे उसे सरेंडर कर दिया था क्या यह नेहरू की बड़ी भूल थी कि तिब्बत के मामले में नेहरू ने नादानी की ना समझी की अ दूरदर्शिता की और तिब्बत की मोहरे का जिस तरह वो प्रयोग कर सकते थे चीन के साथ अपने रिश्तों को संतुलित करने में उसका प्रयोग वो नहीं कर सके भारत की स्थिति नहीं थी कि वह टक्कर ले चीन से जाकर और उनको तिबेट से खदेड़ किस कारण किस वजह से या किस प्लांक पर वो कर सकते थे तो सब सबसे पहले ये कि विकल्प क्या था कोई विकल्प नहीं था आप प्रोटेस्ट कर सकते थे और या फिर आप कहते कि इस मामले से लेकर हम रिश्ते तोड़ देते हैं हिंदी चीनी भाई भाई के नारे कई सालों तक लगते रहे पंचशील समझौते के बाद चाउ एन लाई भारत आए दुनिया भर की बातें हुई लेकिन सीमा के बारे में कोई बात नहीं हुई अगर आप वाइट पेपर्स पढ़े या नेहरू जी के उस समय के भाषण पढ़े कि उन्होंने एक तरह से जो ची चीन से जो सिग्नल आ रहे थे उनको थोड़ा सा मिस रीड जरूर किया इस मुलाकात के बाद नेहरू और चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई की कई मुलाकातें हुई नेहरू चीन गए जहां उनका जबरदस्त स्वागत हुआ इसी माहौल में 1956 के नवंबर महीने में बड़ी घटना हुई चाउ एंड लाई राजकीय दौरे पर भारत में थे तिब्बत के सबसे ऊंचे धर्म गुरु दलाई लामा भी भारत में ही थे वह तिब्बत में चीन की नीतियों से परेशान थे उन्होंने एक बड़ी पहल की आपको समझना चाहिए कि भारत आपकी सहायता नहीं कर सकता है मैं भारत में शरण लेने का विचार कर रहा हूं आपको अपने देश वापस जाना चाहिए और इस 17 सूत्री समझौते के अनुसार अपने देश में काम करने की कोशिश करनी चाहिए मैं यह कैसा मानू कि प्रधानमंत्री ने नौजवान दलाई लामा को उस वक्त भारत में शरण नहीं दी उन्हें समझा बुझा कर वापस भेज दिया गया नेहरू तिब्बत को लेकर चीन की परेशानी को बढ़ाना नहीं चाहते थे लेकिन दूसरी तरफ 1957 के सितंबर महीने में चीन के सरकारी अखबार पीपल्स डेली में खबर छपी इसमें कहा गया कि चीन के सिन कियांग से तिब्बत तक जाने वाली सड़क पूरी तरह से तैयार है यह भारत के लिए बहुत बड़ा झटका था सिंकियांग से तिब्बत तक जाने वाली सड़क अक्साई चीन से होकर जाती थी यह वही इलाका था जिसे भारत अपना मानता था चीन की अक्साई चीन को लेकर असली नियत क्या है यह जानने के लिए प्रधानमंत्री नेहरू ने सीधे चाऊ एन लाई को चिट्ठी लिखी 1956 में हमारी मुलाकात हुई थी तब आपने संकेत दिया था कि मैक मेहन लाइन ब्रिटिश साम्राज्यवाद से उपजी है फिर भी भारत और चीन के बीच दोस्ताना रि को देखते हुए और तिब्बत के स्थानीय प्रशासन से सला मशवरा के बाद इसे मान्यता दे देंगे हमारी अब तक यही सोच रही है कि भारत और चीन के बीच कोई सीमा विवाद नहीं है अभी तक मेरी इस सोच को आप भी सही मानते रहे हैं चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने लगभग एक महीने बाद नेहरू की इस चिट्ठी का जवाब दिया उन्होंने कहा कि कभी चीन और हिंदुस्तान की सीमा औपचारिक तौर पर तय नहीं हुई थी और चीन ने तो यह मसला इसलिए नहीं उठाया क्योंकि वह दूसरे कामों में व्यस्त थे साफ था कि चीन का रवैया बदल रहा था भारत चीन के बदले हुए रुख को परख पाता इससे पहले घटनाओं ने एक नया रुख ले लिया एक बहुत बड़ी घटना हो गई तिब्बत में चीन के खिलाफ बगावत हो गई लाई लामा को लगा कि चीन की फौज उनको गिरफ्तार करने वाली है वह अपने कुछ साथियों के साथ तिब्बत से भाग गए और भारत की तरफ आए भारत सरकार ने उनको आने की इजाजत दे दी और पंडित जवाहरलाल नेहरू खुद मसूरी गए उनसे मिलने मुझे उम्मीद है कि भारत का मदद से तिबेट को आजाद कर पाएंगे [प्रशंसा] दला आमा जी तिब्बत की आजादी के लिए भारत चीन से लड़ाई नहीं शुरू कर सकता मुझे तो यह लगता है कि पूरी दुनिया मिलकर भी तब तक तिब्बत को आजाद नहीं करा सकती जब तक चीन पूरा बर्बाद ना हो जाए प्रधानमंत्री नेहरू का दलाई लामा से मिलना चीन को रास नहीं आया दलाई लामा का जिस तरह से भारत में स्वागत हुआ वह भी उसे रास नहीं आया यह तो साफ था कि ति के मामले में नेहरू चीन को और भड़काना नहीं चाहते थे लेकिन दिलाई लामा को इजाजत देने से ही चीन का मुद्दा और बढ़ गया दोनों देशों में डिप्लोमेसी कम और राजनीति ज्यादा होने लगी हिंदुस्तान में पॉलिटिक्स और बढ़ गई अखबारों में तरह-तरह की खबरें छपने लग गई पार्लियामेंट में सवाल उठने शुरू हो गए और आहिस्ते आहिस्ते प्रधानमंत्री के हाथ से लगाम छूटती गई अब अक्साई चीन की सड़क से लेकर मैक मेहन रेखा तक चीन के रुख पर संसद में सवाल उठने लगे थे प्रधानमंत्री चीन के साथ बिगड़ते रिश्तों को ज्यादा पब्लिसिटी नहीं देना चाहते थे लेकिन मसला संसद में थमा नहीं सांसद उन पर जानकारी छुपाने का आरोप लगाने लगे और आखिरकार उन्हें बड़ा फैसला करना पड़ा इस आलोचना और विरोध को रोकने के लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेंट के सामने एक वाइट पेपर पेश करने के लिए मजबूर हो गए और अगर उन्होंने सोचा था कि यह वाइट पेपर पेश करने से आलोचना और विरोध कम हो जाएगा तो उन्होंने गलत सोचा क्योंकि इस वाइट पेपर में जो जानकारी थी उसकी वजह से तो विरोध और बढ़ गया और और पॉलिटिकल हो गया और अब प्रधानमंत्री की चीन के प्रति जो डिप्लोमेसी थी उस पॉलिटिक्स से प्रभावित होने लगी और उनके डिप्लोमेटिक हाथ अब पॉलिटिक्स से बंद गए थे इसकी एक वजह थे प्रधानमंत्री नेहरू के दोस्त और रक्षा मंत्री वी के कृष्णा मेनन वी के कृष्णा मेनन और तब के सेना प्रमुख जनरल के एस थिमैया के कम ही मुद्दों पर एक मत थे जनरल थिमैया चीन को दुश्मन देश मानकर फौजी तैयारी करने की बात करते थे जबकि मेनन का मानना था कि असली खतरा पाकिस्ता तान की तरफ से है और सेना को भी पाकिस्तान की सीमा पर ही होना चाहिए रक्षा मंत्री और आर्मी चीफ के बिगड़ते रिश्तों की खबर प्रेस को सबसे पहले तब लगी थी जब बीएम कॉल नाम के अधिकारी को लेफ्टिनेंट जनरल बनाया गया था बीएम कॉल को 12 दूसरे अधिकारियों को सुपर सड करके यानी पीछे छोड़कर लेफ्टिनेंट जनरल बनाया गया था कॉल प्रधानमंत्री नेहरू के रिश्तेदार बताए जा थे और इस बात को कॉल ने खूब फैला कर भी रखा था थिमैया कॉल को लेफ्टनंट जनरल बनाने के पक्ष में नहीं थे क्योंकि कॉल के पास लड़ाई में हिस्सा लेने का अनुभव नहीं था कॉल ने ज्यादातर वक्त आर्मी सर्विस कोर में बिताया था उनके प्रमोशन की बात इतनी बढ़ी कि 31 अगस्त 1959 को थिमैया ने इस्तीफा दे दिया यह लीजिए मेरा इस्तीफा आज के बाद सेवा पाऊंगा नहीं नहीं नहीं आप ये इस्तीफा अभी तुरंत वापस लीजिए और इस्तीफे के बारे में मुझे दूसरा पत दीजिए लेकिन सर देखो टीमी मेरी बात ध्यान से सुनो देखो टमी मैं आपसे कह रहा हूं कि ये इस्तीफा आप मेरे लिए वापस ले ले और ये मैं एक प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं कह रहा हूं एक बुजुर्ग नाते कह रहा हूं इसे वापस लीजिए जनरल थिमैया ने अपना इस्तीफा वापस ले लिया इसी बीच चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई की चिट्ठी नेहरू के नाम आई यह बहुत हैरत की बात है कि भारत चीन से उस सीमा रेखा को मान्यता देने की बात कर रहा है जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीतियों ने जबरन चीन के तिब्बत क्षेत्र पर थोपा था चीन की सरकार मैक मेहन लाइन को बिल्कुल मान्यता नहीं देती भारत और चीन की सीमा कभी तय नहीं हुई है और इस पर नए समझौते की जरूरत है जो दोनों पक्षों के लिए वाजिब हो चाऊ की चिट्ठी से साफ हो गया था कि भारत के नक्शे में देखने वाले लगभग 4 हज वर्ग मील जमीन पर चीन अपना दावा ठोक रहा था इसके बाद राज्यसभा में प्रधानमंत्री नेहरू ने अपनी स्थिति साफ कर दी आज से सात आ साल पहले मुझे लगा था कि सीमा मामले में किसी भी प्रकार की चर्चा करना बेकार है कोई सीमा विवाद है ही नहीं फिर भी चीन और भारत कुछ बंजर पहाड़ों के लिए लड़ाई लड़ना चाहते हैं तो इससे बड़ी बेवकूफी की बात हो ही नहीं सकती चीन ने अक्स चीन के लद्दाख वाले इलाके में सड़क बना ली थी जिसको लेकर झगड़ा हुआ और नेहरू ने फरमाया कि वहां तो घास का एक तिनका तक नहीं उगता उसको लेकर चिंता क्या करनी जब महावीर त्यागी ने संसद में अपनी टोपी उतार कर कहा कि यहां भी एक बाल नहीं उगता मेरी चाद पर तो उसका मतलब य तो नहीं कि मेरी गर्दन कलम कर दी जाए तो यह सारी घटनाएं आपको 54 55 से लेकर के हम मानते हैं कि शांतिपूर्ण समझौते पंचशील का जो दिन थे बड़े अच्छे दिन थे मगर अगर आप पलट कर देखें तो विवाद जारी था साफ था प्रधानमंत्री नेहरू के नेतृत्व में डिप्लोमेटिक कोशिशें नाकाम हो रही थी चीन को लेकर देश के अंदर राजनीति और आलोचना बढ़ रही थी दूसरी तरफ सीमा पर दबाव बढ़ता जा रहा था प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने एक अहम बैठक बुलाई प्रधानमंत्री जी इस समय नॉर्थ ईस्ट में चीन बॉर्डर पर आसाम राइफल है और लद्दाख में सीआरपीएफ अभी सीमा की देख इंटेलिजेंस ब्यूरो कर रही है आगे का क्या प्लान है हमें अभ इस सीमा की जिम्मेदारी फौज को दे देनी चाहिए हमारे पास फोर्थ डिवीजन पंजाब में है उसे भी नेफा भेजना होगा और समस्त फॉरवर्ड पोस्ट पर अब सेना की तैनाती होनी चाहिए सर सीमा पर भारतीय सेना की इस तैनाती के फैसले को फॉरवर्ड पॉलिसी कहा गया नेहरू सर का यह बड़ा फैसला था क्योंकि सेना के जिस फोर्थ डिवीजन को नेफा की निगरानी का जिम्मा सौंपा गया उसकी ट्रेनिंग पहाड़ी लड़ाई के लिए नहीं थी और इसी पॉलिसी को चीन लड़ाई की बड़ी वजह कहता रहा है बहरहाल फॉरवर्ड पॉलिसी जमीनी स्तर पर लागू होती उससे पहले चाऊ एन लाई ने एक बड़ा प्रस्ताव नेहरू के सामने रखा मैं यह प्रस्ताव देता हूं कि चीन और भारत की सेना पूर्व में मैक मेहन लाइन और लद्दाख में लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल के 20 किलोमीटर पीछे चली जाए हाल के दिनों में जो घटनाएं हुई हैं उसके पीछे बॉर्डर पर आपकी कार्रवाई है हम मैक मेहन लाइन को गैर कानूनी मानते हैं इसके बावजूद कभी भी हमारी सेना ने उसे क्रॉस नहीं किया है साफ-साफ लफ्जों में कहा जाए तो चीन यह कह रहा था कि लद्दाख का अक्साई चिन्न जो चीन के कब्जे में था वह चीन के साथ ही रहे और अरुणाचल प्रदेश का तवांग का हिस्सा और बाकी वह जो इलाके जो भारत के साथ हैं वह भारत के साथ ही जुड़े रहे हैं अगर चीन को मैंने एक्साई चिन्न दे दिया तो मैं प्रधानमंत्री नहीं रह सकता नहीं मैं ऐसा नहीं करूंगा मतलब साफ था नेहरू अब किसी भी बड़े समझौते से बचने का मन बना चुके थे एक तो उन्हें चीन की नियत पर शकता और दूसरी तरफ आम जनता और राजनीतिक पार्टियां चीन के साथ किसी भी लेनदेन के खिलाफ एक मत दिख रही थी इसी माहौल में 1960 के अप्रैल महीने में चाओ इन लाय के भारत आने की खबर आई इस ऐलान के बाद पंडित नेहरू पर दबाव और बढ़ता गया कांग्रेस के सांसदों ने उनसे मांग की कि वह चीन के साथ और सख्ती से पेश आएं अपोजिशन पार्टीज ने भरोसा मांगा कि पंडित नेहरू चीन के साथ हिंदुस्तान की जमीन का सौदा नहीं करेंगे प्रधानमंत्री निवास के सामने प्रदर्शन हुआ दिल्ली में रैलियां हुई कुल मिलाकर जवाहरलाल नेहरू से यह कहा जा रहा था कि वह किसी भी हालत में हिंदुस्तान की 1 इंच जमीन चीन को ना दे चाऊ नलाई भारत पहुंचे इस बार सुरक्षा इंतजाम सखत थे चा एन लाय करीब एक हफ्ते भारत में रहे प्रधानमंत्री नेहरू से उनकी तकरीबन 20 घंटे बातचीत हुई एक दूसरे पर आरोप लगाए गए बातचीत में चाऊ एंड लाय ने अपने पुराने प्रस्ताव को फिर से दोहराया फ [संगीत] सावा कोहा इसका मतलब यह था कि चीन यथास्थिति या स्टेटस को के बहाने अक्साई चीन पर अपने दावे को छोड़ने की बात कर रहा था और इसके अवज में वह अरुणाचल प्रदेश में अपने दावे को छोड़ने का प्रस्ताव दे रहा था नेहरू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया सवाल यह है यथास्थिति स्टेटस को है क्या आज का स्टेटस को और दो साल पहले का स्टेटस को दोनों अलग है बातचीत के बाद पार्लियामेंट में नेहरू ने असफलता का ऐलान कर दिया जॉइंट स्टेटमेंट जारी हुआ है इसमें सबसे अहम बात यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद कोई हल नहीं निकला दोनों की बातचीत नाकाम रही इस मुलाकात के बाद दोनों देशों के अधिकारी मिलते रहे लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला दोनों देश युद्ध की तरफ बढ़ रहे थे तभी 6 दिसंबर 1960 को जवाहरलाल नेहरू ने खुद भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में चीन की सदस्यता के लिए वकालत की इसके लिए आज भी प्रधानमंत्री नेहरू की आलोचना होती है 1961 से 62 तक प्रधानमंत्री नेहरू को लगातार पार्लियामेंट में चीन के मसले पर घेरा जाता रहा उन पर लगातार कड़ी कारवाई का दबाव था क्योंकि चीन की तरफ से लगातार भारतीय चौकियों पर हमले हो रहे थे अक्टूबर 1962 आते-आते साफ हो गया कि लड़ाई के अलावा कोई विकल्प बचा नहीं है जब डायलॉग ब्रेकडाउन हुआ और जो दोनों पक्षों का जो एक अपना अपना मत था उनके बीच में कहीं भी किसी तरह से मेल नहीं हो पा रहा था तो यह घटना घटी अक्टूबर 1962 को छिटपुट गोलीबारी ने युद्ध की शक्ल ले ली नेफा से लेकर लद्दाख तक के सीमाओं पर चीन ने हमला बोला भारत ने फॉरवर्ड पॉलिसी शुरू तो कर दी थी लेकिन तैयारी पूरी नहीं थी ना हथियार राशन सिर्फ हिम्मत के सहारे भारतीय सेना ने लड़ाई लड़ी जल्द ही भारतीय सेना को नेफा से लेकर लद्दाख तक भारी नुकसान सहना पड़ा लड़ाई के पहले ही दिन नेफा फ्रंट के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कॉल को दिल का दौरा पड़ गया वह इलाज के लिए दिल्ली चले आए उनकी जगह दूसरे जनरल हरबक्श सिंह ने कमान संभाली लेकिन हरबक्श सिंह कुछ कर पाते उससे पहले जवाहरलाल नेहरू के कहने पर कॉल को नेफा की कमान दोबारा दे दी गई नेफा में हार की बड़ी वजह इसे भी माना जाता है बहरहाल ज्यादातर लोग मानते हैं कि युद्ध की दशा शुरुआती कुछ घंटों में ही तय हो चुकी थी भले ही युद्ध में हार की घोषणा में महीना लगा हो यह आकाशवाणी है अब आप प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम संदेश सुनिए चीनी फौजों ने हमारे ऊपर हमला किया और हमारे मुल्क में घुस आए उधर पूर्वी सीमा प्रांत जो है नेफा उसके हमारी सरत से आए इधर और उन्होंने हमारे फौजी जो वहां दस्ते थे उन पर हमला किया था उसके बाद काफी एक बड़ी जंग हुई वहां और चीनियों ने इतनी बड़ी फौज वहां डाली कि उन्होंने हमारे उससे छोटी फौजों को हटा दिया और दबा दिया रक्षा मंत्री वी के मेनन को युद्ध के दौरान ही इस्तीफा देना पड़ा युद्ध के ठीक बाद तब के सेना अध्यक्ष जनरल थापड़ छुट्टी पर चले गए लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कॉल ने इस्तीफा दे दिया चीन के इस लड़ाई में हिंदुस्तानी फौज बुरी तरह से हार गई और इस हार का अपमान इसका घाव इन इवों से कोई कम नहीं हुआ तो सवाल फिर यह उठता है कि क्या यह लड़ाई जरूरी थी अक्साई चीन अभी भी चीन के कब्जे में है अरुणाचल प्रदेश अभी भी हिंदुस्तान के साथ ही है और यह 60 साल पहले जब हिंदुस्तान और चीन के बीच बात बिगड़ने शुरू हुई थी तो क्या उस वक्त उस बात को राजनीति में उसको पॉलिटिकल क्षेत्र में धकेलना जरूरी था क्या डिप्लोमेसी के साथ वो बात ठीक नहीं हो सकती थी हमारे में चीन और हिंदुस्तान में और यह बात तब भी मायने रखती थी और आज भी मायने रखता है बहरहाल इस हार से पंडित जवाहरलाल नेहरू को बहुत घ वो जवाहरलाल नेहरू जो ऊंचे गद के बड़े माने हुए इंसान वो टूट सके और और डेढ़ साल बाद ही उनका देहांत हो गया और जवाहरलाल नेहरू के देहांत के साथ ही एक युग का देहांत हो गया [संगीत] [प्रशंसा] एबीपी न्यूज आपको रखे आगे [संगीत]