दोस्तों क्या आपको पता है बिस्किट्स को हिंदू धर्म के लोग खाने से दूर भागते थे पर क्यों ये तो हम आगे जानेंगे लेकिन पारले जी ने आने के बाद लोगों की मानसिक्ता को बदला और अब ये हम सभी के दिलों पर राज करता है तो दोस्तों सुबह की चाय से लेकर ओफिस की गॉसिप्स तक कैसे एक गरीब चेलर ने बनाया और हाँ हम ये भी जानेंगे और किस तरह इस ब्रांड ने करीब 25 सालों तक अपने बिस्किट के पैकेट का रेट एक रुपए भी नहीं बढ़ाया पारले जी, शायदी कोई ऐसा भारतिय होगा जिसने चाय में ये बिस्किट डूबोकर न खाया हो और हाँ कमाल की बात तो ये है कि जितना लगाओ आपको इस बिस्किट से है ना उतना ही अमारे मम्मी पापा और दादा दादी को भी है यही वज़ा है कि इसे एक बिस्किट नहीं बलकि एक इमोशन कहा गया है और इस इमोशन के निव रखी गई थी ब्रिटिश राज में जब बिस्किट खाना हम भारतियों के लिए एक सुनहरे सपने से ज़्यादा कुछ भी नहीं था लेकिन वो कैसे? इसे समझने के लिए हमें लेट 19th सेंसुरी में चलना होगा अक्चुली उस टाइम पर मार्केट में गिने चुने कुछ बड़े दुकानों में बिस्किट से भरा हुआ एक खास किस्म का चोकोर सा दिखने वाला इस डिब्बे को दुकान से खरीद कर और इंडियन्स उसे दूर से ही देख कर सोचा करते थे कि अखिर ये कौन सी नई जाद है जल्दी ये बिस्किट्स हमारे राजा महराजा और कुछ अमीर इंडियन्स के घरों तक भी पहुँच गये लेकिन इनकी कीमत इतनी ज्यादा थी कि मिडल क्लास या गरीब लोग इसे खरीदने के बारे में सोचने से भी कतराते थे अब ये बिस्किट अमीरों की चाय का साथी तो बन गया था लेकिन बहुत से अपर क्लास हिंदू जो इसे अफोर्ट तो कर सकते थे क्योंकि इन बिस्किट्स को बनाने के लिए बेकर्स अंडे का इस्तमाल किया करते थे लेकिन बाद में इस समस्या का समाधान लेकर आए लाला राधा मोहन जिनोंने 1998 के दोरान दिल्ली में हिंदू बिस्किट्स नाम की एक कमपणी की शुरुवात की इस काम के लिए कमपणी ने सिर्फ ब्रामभडो और अपर कास्ट के हिंदूओं को ही हायर किया पहले ही साल में कमपणी ने अपने बिस्केट्स का अडवर्टीजमेंट दिया जिसमें बताया गया था कि बिस्केट्स की बेकिंग से लेकर पैकेजिंग तक का पूरा काम सिर्फ अपर क्लास हिंदूओं के हाथों से किया जाता है। जिससे कि असली हिंदू बिस्कुट को काफी नुकसान हुआ और वो ब्रिटानिया कमपनी के साथ में मर्ज हो गया फिर आया 7 अगस्त 1905 का दिन जब गाधी जी के नेत्रतों में स्वधेशी आंदोलन की नीव रखी गई और लोगों ने विदेशी चीजों का बाइकॉट करके अपने देश में साथे इस मॉमेंट को सपोर्ट करने के लिए कई भारतिय लोगों ने लोकल बिजनसेस भी शुरू किये ताकि फॉरेंट प्रोड़क्ट्स पर डिपेंडेंसी को कम किया जा सके financially नुकसान तो पहुचा ही सकते थे साथ ही इन टॉफीज का टेस्ट उन गरीब बच्चों तक भी पहुचा सकते थे जो कि इसे अमीर बच्चों के हाथों में देख कर सिर्फ ललचा कर रह जाते थे लेकिन यहाँ पर सबसे बड़ा सवाल था कि अखिर इन टॉफीज को बनाए कैसे जहां से वो इसे बनाने का तरीका सीख सके इसलिए मोहनलाल दयाल ने एक बहुत बड़ा फैसला लिया और इस काम को सिखने के लिए 1929 में जर्मनी चले गए और जब इंडिया वापस आने लगे तो अपने साथ एक टॉफी बनाने वाली मशीन भी ले कर आए मोहनलाल दयाल ने वापस आने के बाद से मुंबई के विले पारले इलाके में एक पुरानी बंद पड़ी फैक्टरी को खरीदा और यही पर अपने मशीन को फिट किया और कोई packaging and supply को देखने लगा अब शुरुवात में किसी ने भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि company का कोई नाम भी होना चाहिए और इसलिए काफी समय के बाद इसकी location यानि विले पारले के नाम पर ही company का नाम पारले रखा गया इस company का पहला product था एक orange candy जो कि उस time पर काफी popular हुआ था लेकिन दोस्तों market में affordable biscuits ना होने की वज़ा से मुहनलाल दयाल ने इस gap को fill करने की सोची और साल 1949 में पारले ने पहली बार अपने बिसकट्स को मार्केट में उतारा जिसका नाम रखा गया था पारले ग्लूको सस्ते दाम और अच्छे क्वालिटी की वज़ासे ये बिस्किट बहुत जल्द लोगों के बीच काफी पॉपिलर हो गया और सेकेंड वर्ल्ड वार के दोरान भी इंडियन और ब्रिटिज दोनों ही आर्मी ने इस बिस्किट को खुब कंजियूम किया था जब 1947 में भारत आजाद हुआ तो उस समय अचानक से गेहू की कमी हो गई लेकिन बाद में इस संकट से उबरने के लिए पारले ने जौ से बने हुए बिस्किट बनाना शुरू किया और एक advertisement में स्वतंतरता सैनानियों को नमन करते हुए अपने consumers से appeal की कि जब तक गेहु की supply नॉर्मल नहीं हो जाती तब तक जौ से बने biscuits का इस्तमाल करें खेर बाद में हालात नॉर्मल हो गए और पारले फिर से जौ की जगा गेहु का इस्तमाल करने लगा अब अगले कुछ सालों तक तो सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा लेकिन 1960 के करीब कई सारी और भी companies ने लोको बिस्किट के नाम सही अपने biscuits को launch करना शुरू कर दिया अब इससे कंजियोमर के बीच में कंफ्यूजन बढ़ने लगी या कि ओरिजिनल ग्लूको बिस्किट है कौन सा और यही वज़ा थी कि इस ताइम पर पारले की सल्स लगातार गिर रही थी इसके ओपर लाल रंग की पारले ब्रांडिंग के साथ एक छोटी लड़की की तस्वीर भी लगी थी और इस लड़की के एलिस्टेशन को एडवर्टाइजिंग एजन्सी एबरेस्ट ब्रांड सलूशन के मगनलाल दैया ने तैयार किया था साथी बाकी के ब्रांड्स के बीच पारले अपनी एक अलग छाप छोड़ने में भी का इसके बाद सिर्फ साल 1982 में कमपनी ने पारले ग्लूको को पारले जी के रूप में री पैकेज किया जिसमें जी का मतलब था ग्लूको और इसी साल 1982 में ही पारले जी का पहला टीवी कॉमर्शियल आया जिसमें एक दादा जी अपने नाती पोतों के साथ गाते हुए नजर आ रहे थे स्वाद भरे शक्ती भरे पारले जी इसके बाद से 1998 में पारले जी को शक्तिमान के रूप में ब्रैंड अंडॉर्सर मिला और अगर आप 90s के केट हैं तो फिर ये बताने की जरूरत ही नहीं कि बच्चों की बीच शक्तिमान कितना ज़्यादा पॉपलर था ऐसे में अपने फेवरेट सुपर हीरो शक्तिमान की वज़ासे बच्चों में पारले जी खुब पसंद किया जाने लगा इसके बाद से जी मने जीनियस, हिंदुस्तान की ताकत रोको मत टोको मत जैसी टैगलाइन ने पारले जी को हमिशा चर्चे में बना कर रखा जिसकी अंडर कई तरह के बिस्किट्स, कैंडीज और नमकीन आते हैं और काफी सारे लोगों को लगता है कि बिसलरी, बेली, फ्रूटी और एपल फिस भी पारले के ही अंडर डराता है लेकिन क्या सच में ऐसा है अब इसे समझने के लिए पहले हमें मोहनलाल जी के परिवार को एक बार देखना होगा एक्चुली मोहनलाल जी के पांच बेटे थे जिन में से बड़े बेटे जयंतीलाल चोहान ने परिवारिक बिजनस से अलग होने का फैसला किया 1970s के दोरान जयंतीलाल चोहान ने अपनी इस बिजनस को अपनी दो बेटों प्रकाश चोहान और रमिश चोहान में स्प्लिट कर दिया था जसके बाद से पारले एग्रो प्रकाश शोहान के आतों में आ गई और रमेश शोहान के अंडर बिसलरी ब्रेंड आता है इस तरह से जयंतिलाल चोहान के परिवार से अलग होने के बाद पारले प्रड़क्स के मालिक बने मोहनलाल जी के चार बेटे मानिकलाल पितांबर नरुत्तम और कांतिलाल चोहान पारले का इंडिया में 40% से ज़्यादा मार्केट शेयर है जो कि किसी भी बिस्किट ब्रांड में सबसे ज़्यादा है तो दोस्तों असल में कमपणी के पास पारले जी के रूप में एक हीरो प्राड़क तो है ही लेकिन इसमें मिली भारी सफलता के बावजूद कभी भी ये हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठे कमपणी ने बहुत पहले ही मार्केट पर रिसर्च करके लोगों की पसंद और नापसंद को समझना शुरू कर दिया था जब इन्होंने अपने पारले ग्लूको बिस्किट को लॉँच किया था तो उसकी दोरान उन्हें ऐसास हो गया था कि जरूरी नहीं है कि मिठी चाय के साथ हर किसी को मिठे बिस्किट से पसंद आएं। इसके बाद से 1963 में पारले अपनी टॉफी लेकर आया किसमी जिसे आप में से भी काफी सारे लोगों ने खाया ही होगा 1966 में पारले ने पॉपिंस को लॉच किया जिसकी रंग बिरंगे कैंडीज बच्चों के बीच खुब पसंद किये गई इसके अलामा पारले ने मेलोडी, राग जैक, 2020 मैजिक्स, मिल्क शक्ती मैंगो बाइट, लंडन डेरी और हाइड औंट सीक की तरह ही कई सारे प्रोड़क् मार्केट में उतारा जो के काफी पसंद किये गए और इनके मदद से पारले इंडिया के बिस्किट मार्केट पर अपना कबजा जमाने में काम्याब हो गया साल 2012 तक पारले 40 लाग दुकानों के जरी अपने प्रड़क्स को बेचा करता था और 2013 में पारले जी का टर्न ओवर 5000 करोड रुपए से भी ज़्यादा का हो गया था और कमपणी का टर्न ओवर बढ़कर 8000 करोड रुपए को भी क्रॉस कर गया आज पारले जी वर्ड का लारजेस सेलिंग बिस्किट ब्रांड है जो हर महीने एक अरब बिस्किट के पैकेट बनाता है और हर एक सेकेंड में ओन एन एवरेज 4551 पारलेजी के पैकेट्स कंजियोम कर लिये जाते हैं तो दोस्तों एक टाइम पर पारलेजी के बिस्किट्स की डिमांड इतनी ज़्यादा बढ़ गई थी कि कमपनी उतने बिस्किट्स बना ही नहीं पा रही थी ऐसे में पारले ने एक बहुत स्मार्ट डिसिजन लेते हुए लोकल बेकरीज के साथ में हाथ मिला लिया जिसकी वज़ा से बिस्किट्स की बेकिंग को लेकर कमपनी से लोड तो कम हुआ ही भी क्रियेट हो गई क्योंकि जिस दुकान से पारले बिस्किट्स खत्म होते थे वहां उनके नीरस्ट बेकरी से तुरंती नए पैकेट्स पहुचा दिये जाते थे अब ये स्ट्राटीजी कुछ समय तक तो बहुत अच्छी काम करती रही लेकिन बाद में जब मैसिव आडर् अब दोस्तों ज्यादा प्रोडक्शन के लिए उन्हें ज्यादा रॉ माटेरियल्स की जरूरत थी जिसे बल्क में पर्चिस करने पर काफी डिसकाउंट मिल जाता था और दोस्तों कुछ इसी तरह का फाइदा पारले जी को भी मिला जो कि पारले जी के दिवाने थे और सौप कीपर्स भी स्टॉक खत्म होने के पहले ही ओडर देने के लिए परिशान हो जाते थे इनके जगा कोई दूसरी कमपनी होती तो पहला काम यही करती है करती कि सबसे पहले अपने प्रोड़क के प्राइस को बढ़ा देती लेकिन पारले जी ने ऐसा नहीं किया आज से पचासे साल पहले ही अपने शुरुवाती समय में भी सबसे सस्ता बिसकिट था और आज भी सबसे सस्ता ही है और कमाल की बात तो यह है कि पिछले 25 सालों में महगाई कहां से कहां पहुँच गई है जैसे कि 1998-99 में पेट्रोल के प्राइस 25 रुपय पर लीटर हुआ करती थी जो कि आज 105 रुपय के आसपास हो गई है लेकिन इन 25 सालों में पारले जी ने अपने बिसकिट के प्राइस को एक रुपया भी नहीं बढ़ाया था ऐसे में आपको लग रहा होगा कि आजकल के स्टार्टअप्स की तरह पारले भी अपने पैसे बर्न कर रहा होगा मगर ये भी सच नहीं है क्योंकि फाइनेशल येर 2022 में पारले जी ने 256 करोण रुपे का प्रॉफिट जनरेट किया था तो असल में दोस्तो पारले जी बिस्किट के प्राइस तो बढ़ रहे हैं लेकिन इतने सालेंटली कि कंजियोमर को Actually company बहुत अच्छे से समस्ती है कि consumers को extra पैसे देना बिल्कुल पसंद नहीं है क्योंकि एक बार जब इन्होंने अपने biscuit पर सिर्फ 50 पैसे बढ़ाये थे तो फिर इनकी सल ड्रासिकली drop होने लगी और लोग सड़क पर उतर कर protest भी करने लगे थे ऐसे में पारलेजी के management team ने यह decide किया कि वो biscuit के price को नहीं बढ़ाएंगे बलकि उसके quantity को कम करते जाएंगे इसे लिए पहले जहाँ 4 रुपए में पारलेजी के 100 ग्राम का packet मिल जाता था वही आज 5 रुपए में सिर्फ 55 ग्राम ही मिल पाता है अब देखा जाये तो पारले जी कमपनी का एक हीरो प्राड़क्ट है जो देश के हर कोणे में छोटी से छोटी दुकान में भी आसानी से मिल जाता है पारले जी के इस स्ट्रॉंग डिस्ट्रिब्यूशन की वज़ासे और उनके जर्गे कमपनी की खुब कमाई होती है क्योंकि यूएस से यूके, कैनेडा, उस्ट्रेलिया और न्यूजिलैंड जैसी कई सारे ऐसे कंट्रीज हैं जहां पारले जी को बहुत जादा पसंद किया जाता है और तो और कई सारे देशों में तो इसकी मैनिफेक्शिरिंग यूनिट्स भी अवेलबल हैं तो दोस्तों पारले जी के साथ आपके किस तरह की यादे जोड़ी हैं हमें कमेंट करके जरूर बताईएगा