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कक्षा 12 हिंदी पाठ्यक्रम और कवि

विद्यातियों आपका जानवी एजुकेशन हब में स्वागत हैं इस वीडियो के अंतरगत हम NIUS कक्सा 12 हैं उसका हिंदी विषय है जिसका कोड नंबर 308 है इस हिंदी विषय को अभी सक्तर 2023-2024 के अंतरगत जिसमें अभी एनीपिक 2020 के तहट कुछ पाठेकरम को कम किया गया है तो उसी के आधार पर हम इन पाठों को पढ़ेंगे, क्योंकि अभी जो अप्रेल में 2024 के अंदर जो आपके पेपर होने वाले हैं, जो अक्सा 12 के स्टुडेंट हैं, तो उस पेपर के अंदर हिंदी के निव सेलेबर्स के अनुसार यह आपका पाठे करम आएगा, आपकी क्व और फिर हम चप्टर नमबर एक पढ़ेंगे, तो पात नमबर पहला है इसमें निर्गुन भक्ती, कबिर और जायसी, तो ये तो पात नमबर पहला है, लेकिन इससे पहले मैं आपको बता देती हूँ, कौन से पात आपके जो उसमें पेपर में आने वाले हैं, और कौन से पात ये उस्तर माध्यमिक पाठेकरम हिंदी बुक नमर एक है इसके तहत जो आपके पाठ आएंगे ये राष्टिय मुक्त विध्याली सिख्षन संस्ता कि यह आपके पाठ के अंदर ही दे रखा है ने किताब जो आपके है किताब के अंदर ही पाठों के नाम वगैरह दे रखे हैं तो अगर आपका नया सेलेबर्स अभी आपके पास नहीं आया है तो आप यहां से देख सकते हैं एनएव्स की साइड़ सब डाउनलोड कर सकते मैंने एक वीडियो बना रखा जिसमें बता रखा कि इन्हें इस बुक नमर फ़र्स्ट है इसके अंदर आपके टोटल 15 पार दे रखे हैं ठीक है फिर बुक नमर सेकेंड है उसमें पार्ट नमर 16 से लेकर 25 तक दे रखे हैं तो इस तरह से टोटल 25 पार्ट आपके हिंदी के पाठेकरम में दे रखे हैं तो ये पार्ट पहले से तो बहुत ही क तो बुक नमर फ़र्स्ट का ही हम पहला पाठ पढ़ेंगे आज लेकिन अब देखो यहां पर दे रखा है कि यह जितने भी पाठ है आपके उसको जो है तो पाठे कर हमको दो भागों में पाठा गया है पहला है सिक्सक अंकित मुल्यांकन कारियन टी एमे के लिए पाठ तो ट लेकिन एकजाम में अनुवाल पाठों पर तो अच्छे से ध्यान दीजिएगा उनको अच्छे से तैयार कीजिएगा फिर है सारोजनी परिक्षा के लिए पाठ तो सारोजनी परिक्षा मतलब जो आपके एकजाम होगे उसके अंदर पाठ आने वाले है उनको भी दो भागों विशे निष्ट प्रकार के प्रश्नम के लिए पाट, विशे निष्ट प्रकार के प्रश्नम का मतलब यह है कि ऐसे पाट जिनके अंदर आपके जो लिखित वाले जिसके उत्तर आपको 30 से 40 सबदों में या एक पंक्ती में देना होगा, टिके 20 सबदों में, 15 सबदों में दे तो हम उसी साउसन पढ़ेंगे तो विभिन भागों से सम्मदित विवरण अगले प्रेश्ट पर दिया गया है अब यहां बताया गया है कौन से तो आपके पाट ऐसे है जो आपके TMA में आने वाले है और कौन से पाट है जो आपके सारुजिन प्रिक्षा में यानि आपके मे पार्ट नमर चार, पार्ट नमर छे, ग्यारा, बारा, चौदा, और अठारा, और उननीस, और बाइस, यह पार्ट है, आपके TMA के पार्ट दे रखे हैं यहाँ पर, इसके लावा, जो आपके सारोजिन प्रिक्षा है, उसमें 60% अंक, मतलब सारोजिन प्रिक्षा से लिए प्रतिशत पाठेक्रम है वह आपका टीएमे के लिए है और सार्ट प्रतिशत पाठेक्रम आपका सार्वधिन प्रिक्षण लिए रखा गया है तो इसके अंतर का देखो उनको भी दो भागों पाठा गया है का और कामे वस्तुनिक प्रकार की प्रश्न जो ने होंगे यानि कि आपके 40 सब्दों के प्रशन आ गए उसमें व्यक्ति आ गई अपने प्रधि गज्ञान सा गया उसकी चुछना आपको लिखना है पत्र आपको करना है निबंद आपको करना इस तरह से आपको दिए जाएंगे और साथ में पाठों में से प्रशन आएंगे आपके अराप जिनके प्रशन के उत्तर आपको रिटर्न में लिखकर देना है और यह जो आट पार्ट है वस्तुनिष्ट चार ऑप्शन दिए होते किसी प्रशन के और चार ऑप्शन में से एक उसका अंसर होता है जिसको हम बोलते हैं कि कख गग इनमें से कोई चारों वाप है जो वस्तुरिष्ट प्रशन प्रकार की प्रशन आएंगे नहीं कि नू टाइप आएगी पिछाता पार्ट है 13 है 16 है 17 है 19 यह जो बड़े वाले क्विशन है वो पूछे जाएंगे तो यह आपको ध्यान रखना है जिसमें यह पाठ दे रखे तीसरा पाठ, आठवा पाठ, नौवा पाठ है पाठ नमर 10, पाठ नमर 15, पाठ 21, पाठ 23 और पाठ 24 दिखें, तो आज हम पहला चेप्टर पढ़ेंगे तो पढ़ते हैं पाठ नमर एक को यह आपका पहला पार निर्गुण भक्ती काव्य कबीर और जायसी तो इस पार के अंतरगत कबीर और जायसी के काव्य है दोय है पद है वो दे रखे हैं तो निर्गुण भक्ती काव्य निर्गुण का मतलब होता है कि यह जो भक्त है कबीर और जायसी यह भगवान को किसी रूप के अंतरगत नहीं मानते तो यह मूर्ती पूजा का विरोध करते हैं और यह मानते हैं कि जो इश्वर है वो सभी जगे व्याप्त है उनका कोई आका तो पढ़ते हैं चप्टर को हिंदी साहिते के एक सुगदिर की परंपरा रही है यह एक रोमांचकारी और सुकद यात्रा के समान है दस्यु कक्सा में आप इबिन कलाओं की रशनाओं को पढ़ चुके हैं दस्यु कक्सा में हमने पढ़ा अलगला काल, अलगला समय की रशना को हमने पढ़ा, हमने कुछ कविताएं पढ़ी, हमने कुछ कहानियां हैं, संस्मरन हैं, रिपोर्टार्ज हैं, वो हमने पाठों में पढ़ा था तो अगर दस्यु क्लास में आप पढ़े हुए होगे, अगर तो इसी चेनल पर मैंने सारे चेप्टर पढ़ा रखे हूँ, कृष्ण आंसर भी करवा रखे हूँ, तो दस्तिव कक्सा के अंदर भी हमने अलग लग कालों के समय के अलग लग रचनाकार हैं, उनके काविये हैं, कविताय हैं, उनके पाठ हैं, उनको हमने पढ़ा था, यह य आदिकाल ने शुरुवाती काल, फिले भक्ती काल जब लोग भक्ती में लग गए थे, जब भक्त कवी है, उन्होंने कई तरह की रचनाएं रची है, फिर रिती काल है, जिसने शंगारस है, प्रेम सम्मदी कविताएं है, वो रची गई, फिर आदुनिक वर्तमान में हर तरह क अगले पाठ में दूसरी शाका सगुन काविय परंपरा को केंद्रम में रखा जाएगा। कि जो है ज्ञान पर बल देने वाले कवियों के अंतरगत रखा गया है उनको ज्ञाना श्री शाखा कहा जाता है क्या कहा जाता है वह ज्ञाना श्री शाखा कहा जाता है जो कि अपने कविताओं के आधार पर वह ज्ञान की बातें बताते और दूसरी वो प्रेम पर बल देने वाला कविये कहते हैं कि हम प्रेम के जरिये यानि भगवान को प्रेम के रूप में हम प्राप्ते कर सकते हैं जिसमें जायसी प्रमुख है इसमें कौन है जायसी तो आपने देखा होगा जो पद्मावत फिल्म आई थी वो जायसी के जो का कि इन्हीं दोनों कवियों की रचना हम इस पार्ट में पढ़ेंगे तो अब उद्देश्य इस पार्ट को पढ़ने का उद्देश्य है तो कभी के कावे में अभी वक्त गुरु की महीमा का उल्लेख कर सकेंगे कभी जी ने जो गुरु की स्थान होता है उसके बारे में बताया गया है कभी की भक्ति भावना पर टिपनी लिख सकेंगे जायसी के मानवी प्रेम को इस्वर्य प्रेम के रूप में व्यक्ति कर सकेंगे इन्हीं जायसी का भी इसमें पद्दे रखे तो जायसी का जो मानवी प्रेम है यानि कि रतन सिंह का जो पदमन्दी की परती प्रेम था उसको इस्वर प्रेम के रूप में व्यक्षित कर सकेंगे अगर वो इस्वर से भी उतना ही प्रेम करते तो वो कैसे उनके मन की भावनाएं होती तो उस आदार पर व्यक्षित कर सकेंगे कबीर और कि लोचन अनत उगार या अनत दिखावण हार तो यहां पर कबीदा जी कहते हैं कि सत्व गुरु की महीमा अनत सत्व गुरु को मतलब इश्वर को प्राप्त करने के जो हमारे गुरु है ना गुरु की महीमा क्या होती है अनत होती है उनकी महीमा का गुनकार हमारे सब्दों में हम नहीं कर सकते अनत क्या उपकार तो गुरु ने म उन्हें उन्हें उन्हें उन् कि मेरे में जो अज्ञानत्य थी उसके में गुरून ने अपने ज्ञान से मेरे अंतकार को मेरे अज्ञानत्य को खत्म कर दिया और मुझे इस्वर प्राप्ति के मार्क पर लेकर गए मुझे अच्छा ज्ञान प्राप्त करवाई उन्हें तो मेरा जो अनंत जो लोचन थे पढ़ते हैं इसी पर का सुरी इसी पर का दूसरा भी का जो इसमें दोहा दे रखा है कबीर दाजी का कि लाली मेरे लाल की जित देखू थी ते लाल लाली देखन में गई में भी हो गया लाल सुरी में भी हो गई लाल यान रूपी प्रकास ठीक है तो ज्ञान पर प्रकास मुझे इतना हुआ है कि लाली मेरे लाल की यानि कि मेरे भगवान जो मेरे इश्वर है वो मुझे हर सर्वत्र दिखाई देते हैं चाहिए कोई प्राणी हो कोई पसु पक्षी हो कोई निरजीव वस्तों सभी जगे मेरे इश्वर की ही शत्ता है तो हर लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल तो जब मुझे ये ज्ञान प्राप्त हुआ कि सभी कनकन में इस्वर व्याप्त है तो मैं जब इस्वर को देखने गई अना तो मेरे भी अंधकार दूर हुआ यानि कि मेरे अज्ञानता रूपी अंधकार मेरा दूर हो गया और मैं तो जहां देखो वह इस्वरी शत्ता दिखाई देती है तो लाल का मतलब एक तरह से हम देख सकते कि हमारी प्राण भी हो सकते कि मैं अब मैं पूर्ण रूप से जीवित हूँ यानि कि मेरा जो मकसद था सुनसार में आने का एक मनुश्य रूप में वो मेरा मकसद पूर्ण ह� यह आपके थालकी चप्ट आपके टीए में आने वाला है लेकिन फिर भी आपको व्यक्षित किस तरह से करनी है वह आनी चाहिए तो पेरा दोहा पढ़ते हैं किताब के जरिए प्रशंत तो लाइट सब्सक्राइब कर लोचन अनत उगार या अनत दिखावण हार इसका प्रशंत का मतलब होता है कि यह जो आपका जो दोहा है वह किसके दूरा लिखा गया है कि कहां से लिए गए हैं तो प्रसंग है कि कबीर जी ने गुरू महिमा के प्रसंग में अनेक साख्या भी लिखी कही है जिसमें गुरू को ज्ञान का श्रोत और इस्वर के समान या कभी इस्वर से पहले मना गया है यह ने गुरू को क्या मना गया ज्ञान का श्रोत मना गया यह ने गुर� इस्वर के समान गुरू को माना गया है और इस्वर से बढ़के बाना गया है क्योंकि इस्वर को प्राप्त करने का रास्ता कौन दिखाता है गुरू ही दिखाता है इन साख्यों में गुरू को ज्ञान का स्रोत कहा गया है ये इस्वर के सरूप का ज्ञान कराने वाला है ये जो है अनन्थ होता यानि कि सत्गुरु की महीमा का उन्होंने वनन किया है तो कबीर कहते है कि सत्गुरु की महीमा का वनन सब्दों में नहीं किया जा सकता क्योंकि वे अनन्थ है उनकी कोई सिमा नहीं है यानि कि गुरु की महीमा अनन्थ है आया ह उपकार है कि उनकी महीमा को हम अपने शब्दों में मनन नहीं कर सकते क्योंकि वे तो अनन्थ है क्योंकि उनकी महीमा तो अनन्थ है उनकी कोई सीमा ही नहीं है गुरू ने मुझे पर असीम उपकार किया है यानि कि मेरे पर इतने उपकार किये है इतने एसान किये है कि उन्होंने क्या किया है कि उन्होंने मुझे अज्ञान के अंधिकार से निकाल कर ज्ञान का मारग दिखाया है तो यह किसने करवा गुरू ने करवा इसलिए गुरू को इस वर्ष से पहला इस तरह गुरू को दिया जाता है सामाने रूप से हमारी आखे वो हमें एक सचा गुरू है जो हमें ज्ञान मार्क पर लेके जाता है, हम इस वरी अनुभती करवादा, तब वो चीज़े हमें दिखाई देने लगती है, नहीं मेंसुस होने लगती है। कितु गुरू के सानिद्य में आने के बाद हमारी द्रश्टी व्यापक हो जाती है, हम सही मार्क पर चल पड़ते हैं, इसलिए गुरू के उपकार असिम है, जो की हमारे जीवन को संतुलित और व्यवस्तित बनाते हैं। कभी ने गुरू को सरोशिष्ट इत्तान दिया है और उन्हें अनंत ज्ञान का भंडार माना है। गुरू को संसारी बंदरों से मुक्त करवाने वाला सिवकार करते हुए कहा। अब देखो एक दोहा और है कबिरदा जी का उन्होंने गुरू को संसारी बंदलों से मुक्त करवाने वाला कहा है कि गुरू गोविन दो खड़े काके लागू पाए। बलिहारी गुरू आपने गोविन दियो बता। यानि कि गुरू और गोविन दोनों मेरे सामने खड़े हुए हैं गुरू तो खड़े हैं साथ में गोविन मतलब भगवान भी मेरे सामने खड़े हुए हैं अब मैं किसको पहल कबीर जी कहते हैं कि मैं सबसे पहले किसको परनाम करूँगा, गुरू को परनाम करूँगा, यहने मैं गुरू को बलिहारी जाता हूँ, बगवान मेरे बाद में है, सबसे पहले मेरे लिए गुरू है, कि बलिहारी गुरू आपने गोविन दियो, बताया कि हे गुरू आपको तो कभी ने गुरू की महीमा की प्राचिन परंपरा को आगे बढ़ाया तथा गुरू के उपकाल को शिवकार किया, ये सच है कि गुरू की अपने अनमोल ज्यान से हमारे जीवन को समारता है, हमें जीवन जीने की कला सिखाते हैं, जीवन को द्रश्टी देकर माया मोके जंज तो गुरू क्या करते हैं कि हमें जीवन जीने का कला सिखाते हैं, जीवन को नई द्रश्टी देकर माया मोओ जो हमारे माया मोओ है उसकी जंजार से मैं मुझ्कराते हैं और इस्वर की परम अनन्मयी भक्ती की और पेरित भी करते हैं, कौन करते हैं गुरू ही करते हैं आज गुरू शिष्ट सम्मदों पर नए ढंग से विचार विमर्ष की आउशक्ता है, गुरू को उचिस्तान पर प्रतिष शिक्सा के विस्तार, ज्ञान के प्रशार और एक नई उर्जावान पीडी का निर्मान करने में सफल हो गए, लेकिन आज के संदर में हम देखे तो गुरू और शिक्षा का संबंध कुछ अलग भी दिखाया गया है, तो हमें गुरू की एक महिमा को समझना है, गुरू को एक इसलिए कबीर का संदेश हमारे लिए आज भी प्रासंगीक और उप्योगी है तो कबीर का यह संदेश है आज भी हमारे उतना ही प्रासंगीक है जितना कि इस समय कविता यह दोहा लिखा गया था टिपणी कबीर का मत है कि गुरू से ही इस्वर के सौरूपा ज्यान होता है इसलिए गुरू इस्वर के समान श्रेष्ट है हम सभी मायामों में फसे हैं इसलिए परम सत्ता का एसास नहीं हो पाता यानि कि हम सभी मायामों में फसे हुए हैं इसलिए हमें परम सत्ता यानि नहीं हो पाता उस इश्वरी सत्ता का में ऐसास नहीं हो पाता इसके लिए दीवित दृष्टि की आवश्यकता होती है तुलसी ने भी गुरु महिमा के संदर्भ में लिखा है गुरु बिन भवनिति तरह ने कोई जो बिर्ची संकर्षम होई गुरु के बिना गुरु के मुक्ति संभव ही नहीं है अथात कोई शिव और भ्रम्मा जैसा सर्वज्ञ और सर्वज्ञानी ही क्यों नहीं हो ना चाहे बिर्ची संस्कर संकर बिर्ची का मतलब होता है ब्रह्मा और संकर का मतलब होता है शिव ना कि ब्रह्मा और संकर जी के समाने कोई महान ज्ञानी सर्वत्य ज्ञानी क्यों न हो लेकिन उनको भी गुरु की आवश्यकता पड़ी थी गुरु के बिना तो शिव और ब्रह्मा भी जो अपने साहब होना उनको भी जो है वह भी उनके भी मुक्ति संभव नहीं है तो यह कहा कोई शिव और ब्रह्मा जैसा सर्वज्ञ और म���ाज्ञानी क्यों न हो बिना गुरु के उनकी मुक्ति संभव नहीं है अनंद सब्द के अनन्त सब्द के कई प्रकार कई बार प्रियोग में विशेष प्रकार की सार्थकता है अनन्त इस्वर को देखने के लिए अनन्त लोचनो या व्यापक दृष्टी की आउशक्ता होती है गुरू का ज्ञान ऐसी ही दृष्टी प्रदाग करता है अतया गुरू का उपकार भी यानि उसके वन्नों का उनके सब्दों में वन्ना नहीं कर सकते गुरू की जो महीमा है एक दोहा और है कि लाली मेरे लाल की जित देखू थी तो लाली देखन में गई में भी हो गई लाल तो अब इस दोहे का भी हम जो वैक्या देखते हैं आईए अब गुरू कबीर के इस दूसरे कि प्रसंग कभी निर्गुन भक्ति धारा की प्रमुख कभी है वह भ्रम या ईश्वर के निर्गुन और निराकार रूप का दर्शन सर्वत्ते करते हैं तो देखो कभी भी है वह भी निर्गुन भक्ति धारा के कभी है और यह जो है भ्रम या इस पद्म कभी भ्रम की अनुभूति करते हैं भ्रम का मतलब होता है कबीर इस पद में इश्वर यानुभुति करते हैं और परते कनक में इसी अनुभुति या प्रेम को ही देखते हैं इन संसार कुछ भी कन हो कोई भी वस्तों से वो इश्वर या अनुभुति ही करते हैं यह इश्वर के परती अनन्य प्रेम की अभिवक् कभी नहीं दोहे में इस्वर के प्रती अपनी अनुभूति की मारमिक अभिवेक्ति की है, वे कहते हैं कि ये सारी भक्ति, ये सारा संसार, ये सारा ज्यान मेरे इस्वर का अर्थात मेरे लाल का ही है, जिसे मैं महसूस करता हूँ, मैं जिदर भी देखता हूँ, उदर मेरे ला मेरे लाल की ही सत्ता अथवा रूप का दर्शन दिखाई देता है, तो मैं जहां देखता हूँ, चाया संसर का कोई भी कन हो, कोई भी वस्तु हो, कोई भी प्राण हो, उसमें मुझे इस्वर का ही प्रकाश दिखाई देता है, सभी प्राण में मुझे अपने इस्वर के ही दर कबीर की भक्ती में पूर्ण समर्पन और सर्णागती का भाव है, उनकी आतना में भक्ती का ऐसा अंकुर प्रस्पू टित्थ हुआ है कि इस्वर के अलावा संसार में सब कुछ सार हीन प्रतीत होने लगा, यानि कि वो इस्वर के अलावा संसार में जो भी चीज़े वो सबको लाल और लाली सब्द का प्रयोग एक पर्तिक के रूप में है, लाल रंग प्रेम और जीवानतनता का प्रतिक है, तो अब यहां परसिण बनता है कि लाल रंग किसका प्रतिक है, तो इस दोहे में लाल रंग जो है, वो प्रेम और जीवानतनता का प्रतिक है, कबीर ने लाल स� लाल सब्द में प्रेम की प्राकाश्ट है कबीर के एक अन्य दोहे में यही भाव इस प्रक्तरे कहा गया है कि तू करता तू भया मुझे में रही न हूँ यानि कि तू करता तू भया मुझे में रही न हूँ वारी फेरी बली गई जिद देखो तित तू यानि कि तू करता तू भया नहीं कि तू अपने आपको में कर रहा था यानि कि मैं हूँ सर्वत्त में हूँ लेकिन मुझे में मैं अपना आप में हूँ ही नहीं यानि कि मैं कह रहा था कि मैं संसार में हूँ लेकिन वास्त� क्योंकि जब मैंने चारों तरफ वारी फेरी बली गई यह जब मैंने चारों तरफ देखा अनुमीन कुछ अनुभूति की मेरे को जब ज्ञान हुआ तब मैंने देखा कि जित देखो तित्तु यानी कि जहां भी देखो वहां कौन है इश्वर ही सत्ता ही है टिपनी कभी ने और श्वम को इस्वर का गुलाम इस्वर का दास वो मानते हैं पर्तिकात्मक पर बल सरल सब भासा में भक्ति का संदेश दिया गया है यानि पर्तिकात्मक पर वो सरल भासा में जैसे कि लाल ओ लाली किसके प्रतिक है उसके पर उन्हें सरल भासा में संदेश दिया है कबीर ने उनकी भाषवा को सद्धुकडी नाम दिया गया है। कि आपके आएं कबीर की जो भी साक्य है तो कबीर ने खुद आखों से जो चीजें देखी है जो उन्होंने स्वयंत अनुभूति की है वह उन्होंने अपनी साक्यों में अपने दोहों में लिखा है ये ज्ञान सुनी सुनाई बातों या केवल पाथियों में पोथियों में उ अनुपरास अलंकार का यहां पर प्रियोग किया गया तो एक बार मैं आपको अलंकार भी पढ़ाऊंगी अलंकार कौन-कौन से होते हैं ठीक हैं जिस प्रकार पहली साकी में अनंद सब्द का सार्थक या सुन्दर प्रियोग हुआ है उसी प्रकार एक दूसरी साकी में भी ला अब है मलिक मुहमद जायसी आपने कबीर के दोहे पढ़ लिये हैं आईए अब हम महाकवी जायसी के कावे का एक अंस पढ़ते जायसी ने चिक्तोड की राजा रतन सिंग और सीहल दीप की राजकुमरी पद्मावती की प्रेम घथा को आधार बना कर पद्मावत नामक महाकावी की रशना की थी कि जायसी है जो कवी है उन्होंने मलिक मुहमज जायसी ने सिंहल दीख की राजकुमारी थी पद्मावती और चित्तोर की राजर रतन सिंग इन दोनों की प्रेम कथा के आधार पर ही जो है पद्मावत नामे के महाकावे लिखा था उसकी रशना की थी इस पार्ट में हम इसी प्रेम के सुरूप को जानते हैं प्रश्न तो उनकी प्रेम में इतने मुक्त हो जाते हैं कि वो एक जोगी का वेश धरन कर लेते हैं और पद्मावती के दर्शन के लिए बड़ी कठनायों का सामना करते हुए वो सिंहल दीप पहुँचे जाते हैं या पद्मावती के दर्शन के लिए आकूल राजा के ने जो सियुसी उन्होंने शिव की प्रात्ना की उसे मिलने के लिए तो इसी का वनने चोपाई के अंतरगत किया गया है हम पढ़ेंगे तो राजा रातन से एक जोगी के व्यास में जाते हैं कि के अस्तुति जब बहुत मनावा सबद अकूत मंडप में आवा यानि कि ये जो कविता लिखी ग महिमा को मान लेता है जान लेता है इस वर्ष अनंत रूप से प्रेम करने लग जाता है तो वह अपने आपको मौक्ष की द्वार पर पहुंचा सकते हैं उसको मौक्ष प्राप्त हो सकता है तो इस तो अंदर का भाव इसका यह निकलता है कि अगर व्यक्ति इस्वर पूरी रूप से वो इस्वर की प्राप्ति में लग जाता है तो उसके बारे तो फिर उसको क्या कठनाय को सामना करना पड़ता है वो बताया गया है तो वो अपने सरीर को क्या नहीं मानता अपने सरीर को एक तरह मिट्टी की जैसा मानता है कि मेरा सरीर तो क्या है मिट्� तो यहाँ पर यही बताया गया है कि के अस्तुति जब बहुत मनावा सबद अकूपत मंडप में है आवा यानि की वेक्ती जो है कि प्रेम और निश्वार्थ भाव से निश्वार्थ दिवी प्रेम के कारण वह एक दिविता को प्राप्त कर लेता है ठीक है वह दिविता को प्राप्त कर लेता है और अनंत है उनका सरीर वह इतना नस्वर और संभंगूर है कि वह मुटी बड़ा के बराबर यानि मनुष्य क्या करता है अपने प्रेम को या अपने अमनुष्य प्रेम मनुष्य प्रेम भव बेखुंटी यानि मनुष्य दीविता के कारण प्रेम निश्वात प्रेम के कारण वो जो है बेखुंट को भी प्राप्त कर सकता है और वो इस समस्ता है कि जो मेरा सरीर है ना प्रेम ही माह विरे रस बसा, मेन की घर मदू कि अमरत बसा देखो क्या है कि प्रेम हिमा यानी प्रेम के अंतरगत सुखत अनुभूति भी होती है संयोग होता है जो प्रेमी से तो सुखत अनुभूति होती जो प्रेमी से वियोग होता है यानी बिछो होता है तो वहां पर अथाकष्ट के अनुभूति भी होती है कैसे कि जैसे मदूमक्की के छट्टा होता है उसमें सहेद रुपी अमरत भरा होता है यह देखो दे रखा ना मेन के मेन यानी मदूमक्की के घर यह मेन के घर मतलब मदूमक्की के घर के अंदर मदूमक्की के छट्टे के अंदर मदू भरा होता है, अमरत रूपी मदू, अमरत रूपी शेहद भरा होता है, लेकिन उसकी प्राप्ती भी तो आसान नहीं है न, जब मदू को प्राप्त करना चाहते हो, शेहद को प्राप्त करना चाहते हो, तो डंक लगने का कश्ट भी हो सकता है, वो मदू मकी आपको काट इस पर को प्राप्त करने के लिए अनिक कठिनायों को सामना करना पड़ता है निशत धाई जो मरे ते काहा सत्यों करे बेठी ते ही लाख निशत का मतलब होता अशत्य व्यक्ति असत्य बोलने वाला हरा असत्य सत्य ही व्यक्ति है ना वह पात दिन मेनद करता है अना लेकिन फिर भी अनत में वह मृत्यु को प्राप्त होता है निशत धाई निशत धाई प्रत्त कहा अनंत में असत्य व्यक्ति को सत्य हिंद व्यक्ति को अनंत में मृत्यु प्राप्त होती है लेकिन प्रन्तु सत्य जो करें बैठी तो ही ला लेकिन जो सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति होता वह बैठे-बिठाए ही लाभ मिल जाता है तो कहने का मतलब यह है कि जो गलत आचरण करता है अ उनको अंत में हार मिलती है और अच्छे और सच्चे वेक्ति को अंत में सुखी सुख मिलता यह अच्छे आच्छन करने वाले को क्या मिलेगा सुख मिलेगा एक बार जो मन देई सेवा सेवही फल प्रसंद होई देवा तो अगर एक बार मनुष्य सच्चे मन से सेवा करता है इस प्रकार अगर वेक्ति सच्चे मन से इस्वर की सेवा करता है तो उसके सेवा से इस्वर परसन हो जाता है तो ये जो परसनता वाली बात है तो राजा रतन सेंग को पता चले कि इस्वर की सच्चे मन से सेवा करने से अगर व्यक्ति को सच्चे में से किसी कारे को करता है तो उसको अच्छा ही फल मिलता है तो इसी प्रकार जो हम यह कहना चाहता है यह कि जो हमारी संस्कर्ति में सेवा का बहुत मेत्र है यह चीज हमारी जो संस्कर्ति है भारती परंपरा उसमें सेवा का बहुत मेत्र दिया गया है तो पदमानत की इन पंक्तियों में भी यही आप देखते हो कि क्या देखते हो कि यह जो पंक्तियों यही बता रही है कि हमारे संस्कर्ति में भी सेवा का बहुत मेत्र है सुनी के सब्बत मंडब जनकारा जब ये सब्द सुना गया कि सेवा, कि सेवा से क्या मिलता है, कि सेवा ही फल प्रसन होई देवा, यानि सेवा करने से जो देवता भी प्रसन हो जाते हैं, तो ये सब्द सुनकर पूरा जो मंडब है, यानि जो मंदिर का जो मंडब है, जहाँ गुझने लगते हैं, ये सब्द गुझने लगते हैं, दिव्य वानी को सुनकर, तो इस तरह की दिव्य वानी को सुना, तो सुनी के सब्बत मंडब जंकारा बेठी आये पूरुब के बारा, तो इस तरह की दिव्य वानी को सुनकर, इस तरह की जंकार को सुनकर, तिके जो रा दड़ हो गया तो वो पूरत दिशा के ओर पूरत दिशा में जो द्वार था उसकी तरफ आकर वो बैठ के तो पूरत दिशा के बारा मतलब होता द्वार तो वो पूरत दिशा के मंदिर के पूरत दिशा में जो द्वार था उसके उपर आकर बैठ गए पिंड चड़ा माटी भव अनंत जो माटी यानि कि हमारे सरी तो मटी का ही है और अंत में किस में मिलने वाला है मिट्टी में ही मिलने जाना है तो मिट्टी में ही मिलने वाला है तो अंत में अपने सरी पर उन्हें भस्म लगाया और यह शिद्ध कर दूं कि यह तो मिट्टी का ही है और अंत म ना कि मिट्टी तो बहुत ही मुल्यवान है अगर को मिट्टी को तुछी है समझता है पर तो दुनिया जितनी भी मुल्यवान वस्तुएं सब मिट्टी की तो बनी हुई है वो सब मिट्टी ही तो होनी जानी है लास्ट में ना तो माटी मोल ना किचूले है और माटी सब मोल है अपनी दृष्टि अपने सरीर को माटी मान लेता है, मिट्टी मान लेता है, उसका सरीर अनमोल हो जाता है, यह अटल सत्य है, यहाँ हमारा सरीर नस्वर है, और मत्यू हमारी अटल है, मत्यू हमें समझना चाहिए, कि हमारी मत्यू तो अटल है, तो जीवन को अत्यां सुकत बनाने के लिए हमें इस्वर की प्राप्ति का माद्यम बनाने के लिए हमारी सरीर का उसी रूप में उपयोग करना चाहिए, कि हमें इस्वर को प्राप्त कर सके, तो वह प्रेम की स्रेष्टा को यहाँ पर इस चोपा भावना को समझे प्रेम की सच्चाई को समझे और इस वर को प्राप्ते करे तो अब इसका हम जो व्यक्या है एक बार किताब से भी देख लेते हैं तो आईए जायसी के कावे के इस संस को समझे प्रसंग प्रस्तु कावे आज आईए जायसी के भाव कावे पद्बावत के मं सिंहल दीप के राजा की पुत्री पद्मावती के आलोकिक रूप का वनन सुनकर चित्तोर के राजा रतन सेन इस सिमा तक मुग्द हो गए कि जोगी का वेस बना कर पद्मावती के दर्शन के लिए अने कठनायों का सामना करते हुए सिंहल दीप पहुँच गए। सिंहल दीप एक सिरिलंका की तरख दक्षिनी भारत में पढ़ता है तो वहाँ पर पहुँच गए। यहाँ वहाँ पद्मावती के दर्शन के लिए आकूल राजा ने शिव के से प्रातना की इस चोपाय में मनुष्य अपने नीस्वार्थे दिवी प्रेम के कारण दिवेता प्राप कर लेता है अन्यता उसका सरीर तो इतना नसवर और शनबंगूर है कि वे मुट्टी भर राग के बराबर हो जाता है इतने कहने का तात्परी यह है कि मनुष्य के रिदे में इस्तित पेम नहीं उसे देवता के समान महानता परदान की है अन्यता मरकर मनुष्य शरीर में राग का धेर होने से कुछ भी समय नहीं लगता है यह नहीं मनुष्य में इस्त उसको महानता प्रदान कर देता है कि उसी मनुष्य के मन में बहुत प्रेम है सब के लिए अच्छा करता है तो लोग उसको देवता करूँग माने लगते हैं उसके मनने की बाद भी लोग उसको याद करते हैं वना मनुष्य का सरी तो क्या है सन भर में वो एक राक होने वाला ह उसमें सईयोग का सुख भी मिलता है यानि प्रेमी से मिलता है तो अच्छा लगता है और उससे वियोग होता तो अथा कश्ट भी होता है जैसे मदुमकी के छत्ते में तो मैंने ये बात आपको बताई भी है कि जैसे मदुमकी के छत्ते में शहद रूपी अमरत है तो डंक ल� आप भी ये बात समझते होगे कि सत्य हिन व्यक्ति राप दिन मेहनत करके अंत में मत्यू को प्राप्त होता है परन्तु सत्य का आच्रन करने वाले व्यक्ति को बैठे बिठाय ही लाब मिल जाता है कहने का तत्पर है कि मिठ्या आच्रन करने वाले को अंत में हार मिलती है और सत्य व्यक्ति को अंत में सुखी सुख मिलता है शिक्षार्तियों इसलिए हमारी संसकती में सेवा का इतना महत्व है पद्मावत की इन पंक्तियों में आप देखते हैं कि इस प्रकार की वानी मंडप में जंकर्थ होने लगती है। मिट्टी है और उसे अंत में मिट्टी में ही मिल जाना है। अंत में अते मैं अपने शरीर पर भसम लगा कर ये त्रसिद कर रहा हूँ कर दू कि ये तो मिट्टी ही है और अंत में मिट्टी में ही मिलकर इसे मिट्टी में ही हो जाना है। यू तो संसार में मिट्टी को तुछोर है समझा जाता है परन्तु दुनिया की जितनी भी मुल्यवान वस्तों है वे सब मिट्टी ही है। जो व्यक्ति उसकी मिट्टी अन्मोल हो जाती है, शिक्षार्थियों, यह कवी, यहां कवी सूपी दर्शन की एक विशेष्टा की ओर संकेत कर रहा है, कि जो मनुष्य सरीर की नासवरता और मर्त्यू की अटलता को समझ लेता है, उसके लिए जीवन अत्यान सुकत बन जाता है, वे सरीर को जीवन में कितना महत्व है, यानि प्रेम की जी भावना है, उसका जीवन में कितना महत्व है, तो इस तरह से आपका ये चेप्टर है, वो कंप्लीट होता है, तो उम्मीद है कि आपको ये पार्ट समझ में आया होगा, तो इस तरह से हम सारे चेप्टर कंप्लीट करेंगे, त