कि अगर दुर्योधन चड़ गया होता सिंहासन पर तो धर्म का भूत नाश होता दुर्योधन ने साहित बुलाएंगे कि खृष्ण को इधंदी बना लोगे यह पर कौन समझाएगा ऐसे आगे जाकर कृष्ण कहते हैं फिर मरेंगे नहीं जिस शब्द इन्होंने अर्जुन को कोई युद्ध की निसारता थोड़े ही दिखने लगी थी उसके भीतर तो सुझनों का मोह उठने लगा था जो अपने खिलाफ प्रयास करते हैं वह प्रयास कुछ ऐसा प्रबल होता है जो बीसों शताब्दियां बीच चुकी है लेकिन भगवद्धि का सूरज की तरह आज भी चमक गई है अजय को देखेंगे कि श्री कृष्ण और जिनके अ सब भावक मार्मिक वक्तव्यों को किस प्रकाश में देख रहे हैं? तो अपनी ही मोह जनित पीड़ा को आगे अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं अर्जन। कि यद्यपिये धृतराष्ट पुत्र लोभ से अंधे होने के कारण कुलनाशकारी दोश तथा बंधवों के मारने से उत्पन्न पाप को नहीं समझ रहे, तो भी हे जनारदन, कुलक्षय से होने वाले दोश को देख सुनकर भी हम लोगों को इस पाप से निवरत होने का विच अरतिस्वा श्लोक है कि ये दृतराष्ट पुत्र तो लोभ से अंधे हैं और कुल का ख्षय, कुल का नाश करने के ही घोर पाप, भीशन दोश को ये कुछ समझ नहीं पा रहे हैं क्योंकि लोभ ने दृष्ट पर फर्दा डाल दिया है। आगे कहते हैं कि वो ऐसे है तो हैं, हमें नहीं समझना चाहिए क्या. दिखिए बात जटिल है ठीक वैसे, जैसे आदमी का अंतस जटिल होता है. एक और तो ये बात बिल्कुल ठीक है कि... कम से कम दुर्योधन जैसों से श्रेष्ठतर अवस्था में हैं इस वक्त अर्जुन। विक्तिकत लाभ और लोब से उपर उठकर कुछ और देख पा रहे हैं। लेकिन विक्तिकत लाभ से उपर पारमार्थिक भर ही नहीं होता। सत्य भर ही नहीं होता, बीच में एक बड़ा लंबा चोड़ा ख्षेत्र है, एक विगराल अंतराल है जिसमें तमाम तरह की ग्रंथियां काम करती हैं, और जूठ, असत्य वास्तव में बचा रहता है, तो इसी लिए क्योंकि विशुद्ध जूठ और विशुद्ध सच के बीच में आन्शिक जूठों का एक बड़ा लंबा फैलाव होता है जिसमें जूठ को छुपने की जगह मिल जाती है सिर्फ इस कारण से कि वहां आन्शिकता है विशुद्ध जूठ नष्ट हो जाएगा बची नहीं सकता और विशुद्ध सत्य अनंत है लगभग अपराप्य है उसकी बात क्या करें उसे किछी सुरक्षा की आवश्यकता नहीं जूट बचा कैसे रह जाता है जूट बचा रह जाता है सच की ताकत पर जूठ बचा रह जाता है अपने आप को आन्शिक रूप से क्षेण करके सच के बीच में हमने कहा जो बड़ा भारी मैदान है वहाँ पर छुपा रहता है जूत खरा जूत, पूरा जूत, अपनी ही सच्चाई तले धुस्त हो जाएगा जूत की सच्चाई क्या है?
कि वो जूत है चूकि वो जूत है इसलिए बची नहीं सकता जूत का अर्थी है वो जो है नहीं वो बचे जूठ जिस क्षण पूर्ण रूपेन अपने आपको अभिव्यक्त कर देता है, अपना परिचया दे देता है, सच से अपना दामन पूरी तरह छुड़ाने का दुसाहस कर लेता है, वो आखरी क्षण होता है उसका, फिर वो नहीं बच सकता. हम दोहरा रहे हैं कि जूठ बचा रहता है सच की छाया में जूठ के पाव नहीं होते उसे चलने के लिए सच के पाव चाहिए जूठ में प्राण नहीं होते उसे चलने के लिए सच के प्राण चाहिए वो चलता है, जीता है, खाता है, सांस लेता है सच के प्रताप से सच के सानिध्य में तो एक ओर तो दुर्योधन जैसे हैं जिनका जूठ एकदम अनावरत है पूरी तरह खुला निर्वस्त्र कोई संशे नहीं कोई शंका नहीं कि दुर्योधन धर्म की रेखा के किस ओर खड़ा हुआ है दूसरे ध्रुफ पर है कृष्ण, वहाँ भी कोई संशे नहीं कि वो किस ओर खड़े हुए हैं, लेकिन महाभारत के जिम्मेदार वास्तों में वो लोग हैं जो पूरी तरह अधर्मी नहीं हैं. जो बीच में हैं, जिनका जूठ आन्शिक है, जिनके जूठ ने सत्य से आशिर्वाद ले रखा है, दितराश्ट, भीश्म, द्रोण, करण, ये हैं वास्तविक रूप से जिम्मेधार सारे अधर्म के क्योंकि इनके पास थोड़ा सा सच भी है, इनके पास वो मुठी भर सच है जो जूठ का प्राणदाता बन जाता है, ये मुठी भर सच बहुत खतरनाक हो जाता है, ये मुठी भर है न, तो ये जूठ की मुठी में समा जाता है हम दोहरा रहे हैं, खुले जूट से ज्यादा घातक होता है आन्शिक सच क्योंकि आन्शिक सच जूट को दिरघायू बना देता है वो जूट को छुपने की जगह दे देता है वो जूट को सम्मानजनक बना देता है अर्जुन भी इस समय आन्शिक्ता के उसी क्षेत्र में मौजूद हैं। बहुत कुछ है प्रथम अध्याय में अर्जुन के वक्तव्यों में जिसमें आपको एक उदात्तता दिखाई देगी। एक सुक्ष्मता। निजी स्वार्थ से आगे के कुछ सरोकार, कुछ ऐसी बातें जिनने निसंदेह धार्मिक कहा जा सकता है और उसी धार्मिकता का, बल्कि कहिए छत्म धार्मिकता का सहारा लेकर अर्जुन का मोह अपने आपको क्रियाशील रख पा रहा है। एक श्लोक नहीं है जिसमें अर्जुन कहते हो कि और कोई बात नहीं है, मोहगरस्त हूँ। और वीर जब मोहगरस्त हो जाता है, तो उसकी वीरता भी कुंद पड़ जाती है। काइरता उठने लग जाती है। लेकिन इतनी बातें कह रहे हैं अर्जुन अभी तक कहे आए हैं आने वाले श्लोकों में भी कहेंगे आप कहीं नहीं पाएंगे कि अर्जुन सपष्ट स्वीकार कर रहे हो कि और कुछ नहीं मोह है बस केशव और उसी मोह के कारण हाथ थरथरा रहे हैं ऐसे नहीं कह पातें व और ये तरक पूरी तरह जूठा नहीं है इसीलिए खतरनाक है कह रहे है जिरतराश्ट के ये पुत्र ये सब तो लोभ में अंधे हैं हम इनसे बहतर हैं ना तो हम वही काम क्यों करें जो ये कर रहे हैं अब सुनने में ये बात कितनी ठीक लगती है हम में और दुर्योधन में अंतर क्या रहा फिर वो तो लड़ाई ही वेर्� लड़ाई तो धर्म बनाम अधर्म की होती है और अगर हम दुर्योधन जैसे ही हो गए तो उधर भी अधर्म और इधर भी अधर्म फिर लड़ाई का उचित्य क्या बचा बात सुनने में कितनी सार्थक है इसी बात को काटने के लिए कृष्ण बताएंगे कि लड़ाई कर्म भले ही दोनों ओर से एक सा दिखता हो, आवश्यक नहीं है कि उसके पीछे करता भी एक समान हो। बाण कौरवों की ओर से भी चलेंगे, बाण पांडवों की ओर से भी चलेंगे, लेकिन इसका आर्थ ही यह नहीं है कि कौरव पांडव एक बराबर हो गए। अर्जुन कह रहे हैं अगर लड़ाई कर ली तो हम उनी जैसे हो जाएंगे ना तो फिर तो लड़ाई करने का सारा औचित्ते ही स्वाहा हो गया नहीं बान रावन की ओर से भी चलते हैं राम की ओर से भी पर इस कारण दोनों बराबर थूल और अंधा न्याय होता है जो कर्म मात्र को देखता है। जिनकी भी थोड़ी सुक्ष्म द्रिष्टी रही है उन्होंने कर्ता को देखा है। एक बान चल रहा है अधर्म हेतो एक चल रहा है धर्म की रक्षा के लिए दोनों में बहुत अंतर है। उपर से वो एक जैसे हैं। वीर दोनों ओर से हुंकार रहे हैं। और कोई अनाडी हो उसको लगेगा हुंकार एक बराबर है दोनों ही रक्तपिपासों हैं हुंकारों में बहुत अंतर है बान और बान में अंतर है हुंकार और हुंकार में अंतर है एक शंक और दूसरे शंक की नाद में अंतर है जो लोग जीवन में पैनी द्रिष्ट नहीं रखते, ये उनका अभिशाप है, कि उन्हें अपने आपको सीमित रखना पड़ता है, बस कर्मों के विशलेशन तक, क्योंकि उनके पास वो चेतना ही नहीं, जो प्रकट कर्म के पीछे अप्रकट करता को देख पाए, पहचान पाए, चीन पाए. कि उनकी हालत ऐसी है कि दो व्यक्ति अस्पताल जाते हो एक इसलिए कि बीमार है दूसरा इसलिए कि चिकित्सक है वह दोनों को एक बरावर मान लेंगे तो शारी बात क्योंकि दोनों का कर्म तो एक जैसा है ना दोनों चल रहे हैं और दोनों की दिशा भी एक जैसी है और दोनों ही एक समान हरवडी में भी दि� उततकाल घोशित कर देंगे ये दोनों तो एक जैसे हैं आप में और उसमें फर्के का है अरजुन भी उसी कुतरक से अभी आ रहे हैं उसी बिंदु से संचालित हो रहे हैं और यहाँ पर अरजुन की बात को काटने के लिए कोई प्रज्ञावान मनुष्य चाहिए जो कि कृष्ण ने संदेह है तो अर्जुन के सब तरपों का उत्तर आगे आएगा देखिए बात को समझिए गीता सांख्य योग में शुरू के कुछ श्लोकों के बाद से भी आरम्ब हो सकती थी पहला अध्याय तो पूरा ही अरजुन के विशाद का निरूपन हैं और दूसरे अध्याय में भी कुछ आरंभिक श्लोकों में अरजुन की ही व्यथा है कृष्ण की ज्ञान वर्षा तदोपरांत प्रारंभ होती है गीता यदि सिर्फ कृष्ण दोरा प्रदत्त ज्ञान है तो वो तो दूसरे अध्याय से भी आरंभ हो सकती थी वहाँ से नहीं आरंभ हुई है। मैं पहले अध्याय को और दूसरे अध्याय के आरंभिक श्लोकों को बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ। गीता पर अब मैं अनेकों बार बोल चुका हूँ। मेरा सवभाग्य रहा है। और इतनी बार बोला है, मैंने उतनी बार आग्रह करा है। अर्जुन के एक वक्तव्य और तरक में अपने आपको देखिए। नहीं तो कृष्ण की बात आपपर लागू ही नहीं होगी। तुम्हें बात को तुम्हें बात को। कोई साधारन कृष्ण कार होता। तो जहां से कृष्ण बोले हैं, गीता भी वहीं से शुरू कर देता है। वेद व्यास की बात दूसरी है। उन्हें यूँ ही नहीं वेद व्यास कहा गया। अर्जुन की वृत्ति, अर्जुन की विढंबना, अर्जुन की किंकर्तवि मुढ़ता। हम सब की है, अर्जुन के तरकों की जटिलता, अर्जुन का आंतरिक शड़यंत्र हम सब का है, जब तक आपके मन में वो इस्थिति नहीं आ जाती, जहां आप कहें अर्जुन ने नहीं कहा, मैंने कहा तब तक कृष्ण की बात आपको काटेगी नहीं। कृष्ण तो जो कुछ भी कह रहे हैं, काटने के लिए कह रहे हैं, विदान्त की विधी काटना है। गीता को गीता, ग्रंथ, गीता, शास्त्र, गीता, उपनिशद भी कहते हैं। विदान्त के तीन प्रमुक स्तंभों में स अन्य कई गीताएं भी हैं, जो विदान्त में महतपूर्ण स्थान रखती हैं, उनमें अग्रणी है भगवत गीता, और विदान्त की क्या विधी, काटना, काटे नहीं तो विदान्त अपना काम नहीं कर सकता, और आपको काटा गैसे जाएगा अगर आप अर्जुनी नहीं थ आप पढ़ते रहिए, गीता फिर आपके लिए साहित्य बन जाएगी, अच्छी पुस्तक है, साहित्य है, बढ़िया, कुछ समाने ज्ञान की बात है, हो सकता आपको दो चार श्लोक भी स्मृतिस्थ हो जाएं, कोई पूछे तो आप भी बताते हैं, इसे चलता है, यदा यद और जो कटा नहीं वो अपनी कैद में रह गया जब आप कटते हैं तभी आपकी कैद की सलाकें कटती हैं क्योंकि अपनी कैद आप स्वेम हैं आप कठी नहीं सकते, अगर आप देखें अर्जुन के वक्तव्यों को, और आप चौंक न जाएं, आप कहें अर्जुन तो लिखा ही नहीं है, मेरा नाम लिखा हुआ है, अर्जुन का मेरा मैं लिखा हूँ, कौन हूँ मैं, थोड़ा अच्छा, थोड़ा बुरा, बड़ा ज मैं इतना अच्छा हूँ कि मैं कभी पूरी तरह बुरा हो नहीं सकता और मैं इतना बुरा हूँ कि अपनी बुराई को बचाये रखने के लिए मैं उसमें आन्शिक सच्चाई मिला देता हूँ बताओ मैं अच्छा हूँ कि मैं बुरा हूँ पता नहीं मैं क्या हूँ प्रेम उसे सत्य से इतना है कि वो जो करती है उसी की खातिर करती है और घ्रणा उसे सत्य से इतनी है कि सत्य को देखते ही भाग खड़ी होती है। यह जो विरोधा बाहस है, यह जो दो धुरुवी ये दोयत है। यही मनुष्य की कहानी है, यही पूरा संसार है। अन्यथा जब मैंने गीता पर बोला है, तो मैंने कई दफ़े अर्जुन की बड़ी भर्सना भी कर दी है। अगर आज हम दूसरे अध्याय के कुछ श्लोकों तक प्रगती कर पाएंगे, तो वहाँ पाएंगे कि एक जगह पर अर्जुन भूषना कर देते हैं, मैं युद्ध नहीं लडूंगा और धनूश रखी देते हैं नीचे, सलाह नहीं मांग रहे हैं, कृष्ण को अपना निर् अर्जुन सामान्य मनुष्यों से इतने श्रेष्ठ है कि स्तुति योग्य है। किसी साधारन व्यक्ति पर तो गीता उतरती ही नहीं। वहाँ हगारों लाखों का जमावड़ा है उनमें अगर कोई एक सुपात्र है गीता के योग्य तो अर्जुन है। ठीक वैसे चैसे अर्� अच्छे से अच्छे हैं हम और बुरे से बुरे हैं हम और अच्छे और बुरे एक साथ हैं हम यहाँ सा नहीं कि एक पल अच्छे हो और एक पल बुरे हैं जिस पल आप अच्छे हो रहे हैं उस पल आप शायद अच्छे हो रहे हैं अपनी बुराई को कहीं न कहीं बचाए हुए और जब आप बहुत बुरे हो रहे हैं तो इसलिए हो रहे हैं क्योंकि आपको अच्छा ही चाहिए थी उसके प्रेम में बुरे ह अब आत्मा एक मात्र सत्य है तो जो कुछ भी होगा आत्मा को ही केंदर में रखकर होगा ना प्रेम भी आप करोगे तो उसी से करोगे और ग्रणा भी करोगे तो उसी से करोगे तो ऐसा है जटिल अर्जुन का चरित्र और अर्जुन प्रतिनिधि है हम सब के मन के तो कुलक्षय से होने वाले दोश को देख सुनकर भी हम लोगों को इस पाप से निवरित होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए इसी आशय के तरक आगे भी है क्या कह रहे है हमें इस पाप से निवरत होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए। तीन तल हैं चेतना के हमारी, आत्मा, शुद्धतम, फिर वृत्ति उससे उपर, और उससे उपर विचार, और विचार का ही एक टुकड़ा, एक अंश होता है तरक। इन तीन तलों के बारे में एक बात यह है कि इन में से कोई भी तल अपने से पीछे वाले तल को जीत नहीं सकता। विचार से पीछे वृत्ति होती है। तो वृत्ति हमेशा विचार पर भारी पड़ेगी विचार उठता ही वृत्ति से है हालंकि विचार का दावा ये होता है कि वो स्वतंत्र है कि वो सत्यनिष्ठ है लेकिन विचार कितना भी दावा कर लेगी वो स्वतंत्र और सत्यनिष्ठ है वो उठता सदा वृत्ति से ही है और विचार में साधारनतया ये एक शम्ता नहीं होती कि वो पीछे मुढ़कर देख पाए कि वो कहां से आ रहा है। विचार आगे देख रहा होता है। किसको? विचार के आगे क्या है?
संसार। विचार संसार को देख रहा है और विचार को पता ही नहीं कि उसके पीछे क्या बैठी हुई है जहां से उसका उद्गम है, वृत्ति बैठी हुई है। यह फिर एक विशेष प्रकार का विचार होता है जो पीछे देख सकता है, जो आत्मग्रहमन कर सकता है। उसको आत्मविचार कहते हैं। पर उसके लिए बड़ी सत्यनिष्ठा और ध्यान चाहिए। सधारण विचार मुण करके स्वयम को नहीं देख सकता। विचार के पास दरपण जैसी कोई सुविधा नहीं होती कि वो देख पाए कि वो कौन है कहां से आ रहा है। नहीं। विचार के पास बस आखें होती हैं हमको लगता ऐसा रहता है कि हमने विचार किया, हमने विचार करा नहीं, हमाई वृत्ति ने हमने एक विचार पैदा कर दिया, हमें नहीं पता होता हमारा विचार कहां से आ रहा है, कोई नहीं जानता हमारा विचार कहां से आ रहा है, बस एक विचार उठाता है न, जब विच विचार आपको उठाकर किसी भी दिशा में ले जाएगा लेकिन स्वयं विचार किस दिशा से आ रहा है ये आपको कभी पता नहीं लगेगा क्या ये दिखा है आपने आप बैठे होते हैं एक विचार आ जाता है आपको कुछ पता भी ये विचार कहां से आया नहीं पता न बस आ गया वो वृत्ति से आता है आहम वृत्ति से आता है और आहम वृत्ति के पीछे उसकी छोटी अनुगामी वृत्तियां होती हैं जैसे एक पेड़ हो उस कि शाखाएं हो वहां से आता है विचार तो विचार हमेशा वृत्ति के प्रयोजनों को पूरा करने के लिए आता है अब यहां पर अर्जुन की वृत्ति हो रही है मोह की तो उसको विचार यह आ रहा है कि देखो अगर धृतराष्ट्र के ले दे करके विचार ही कहने है लड़ाई मत करो विचार क्या कहने है लड़ाई मत करो और लड़ाई न करने के पक्ष में एक कारण बता दिया है विचार ने क्या कारण कि अगर तुम उनसे लड़े तो तुम उन बरावरी हो जाओगे और ये तो कोई बात नहीं लेकिन वास्तविक बात ये है कि न लड़ने की भावना पेरना उठ रही है मोह वृत्ति से मोह वृत्ति ने एक बुद्धिनमत्ता पूर्ण विचार को जन्म दिया है जो कह रहा है कि बात मोह की नहीं है बात अपने स्तर और स्थान की है दुर्योधन एक निम्न चेतना का व्यक्ति है जो काम वो कर रहा है अगर हमने भी वोई कर दिया है तो हम उसी के स्तर के हो जाएंगे तो इसलिए हमें लड़ाई नहीं करनी चाहिए आप देख रहे हैं आदमी के अंतर जगत की जटिलता को आपके उद्देश्य पहले बनते हैं और फिर उन उद्देश्यों को सत्यापित करने के लिए वैध ठहराने के लिए कि आप किसी तर्क का निर्वान कर लेते हो और यह बात सुबह आपको भी नहीं पता होती और विरल है वह चेतना जो अपने तर्कों को काटकर अपने उद्देश्यों पर सीधे-सीधे दृष्टिपाद कर पाए इसीलिए बोला करता हूं कि आपने कुछ करा और आपने जो कुछ करा, वो किस खातिर करा, ये जानने के लिए कई बार अपने कर्म का परिणाम देख लिया गई है। परिणाम बहुदा, अनायास नहीं होता। वास्तव में वही परिणाम आपको चाहिए था, इसलिए आपने जो करा सो करा। बस वो जो परिणाम है। वो आपकी नैतिकता के मापदंडों पर खरा नहीं उतरता तो आप स्वयम को ये बता नहीं पा रहे थे कि आप इस प्रकार के परिणाम के इच्छुक हैं और इसलिए आप ऐसा कर्म कर रहे हैं तो आपने कर्म करा लेकिन परिणाम को अपने आपको ही यूँ प्रस्तुत करा कि जैसे सायोगि खो अकस्मात परणाम सामने आ गया, कोई परणाम अकस्मात सामने नहीं आता, वो परणाम वही है जिसकी आपकी चेष्टा थी, क्योंकि अहम रित्ते तो भोग धर्मा होती है, वो जो कुछ करती है परणाम के लालच में ही करती है, आपके कर्मों का परणाम क्या आ रहा है, जरा तो मजबूरा रही है बात कुछ भी यूँ ही नहीं होता या कह लीजिए अधिकांश जो आपके साथ होता है उसमें आपकी सहमते और आपकी ही पूरी तैयारी सम्मिलित होती है। अर्जुन हैं आप। लड़ना मोहवश नहीं है, लेकिन तरक दे रहे हैं धार्मिक्ता से परिपोर्ण। लड़ाई न करने के पीछे असली कारण क्या है? मोह, लेकिन दर्शा यू रहे हैं जैसे लड़ाई ना करने के पीछे असली कारण है धर्म, सीधे कहना कि मोह गरस्थूं, बड़ी लज्जा की बात हो जाती, और अगर मान ही लिया कि मोह गरस्थूं, तो मोह से आगे जाना पड़ता, मोह का उल्लंगन करना पड़ता, तो इस हम सब बहुत चतुर लोग हैं हम बात किसी और चीज की करेंगे कि देखो बात मोह की नहीं है बात सिद्धान्तों की है बात सिद्धान्तों की है हमारे सारे सिद्धान्त, हमारी विचारधाराएं हमारे सारे तर्क बस हमारी वृत्तियों के उपर का एक नखाब होते हैं वृत्ति बड़ी गड़बड़ चीज है, वो विचार का संचालन करती है, भी हमने कहा, विचार करकर क्या आप वृत्ति तक पहुँँच भी नहीं सकते, वृत्ति भारी पड़ती है विचार पर, तो वृत्ति पर कौन भारी पड़ेगा, आत्मा, क्योंकि हमने कहा चेतना के अहंकार का शोधन कर करके बुद्धिजीवियों का ऐसा विचार रहता है कि उनका विचार उनको सत्य तक लिया देगा विचार तो वृत्ति का ही अवरोध पार नहीं कर पाएगा बहुत आगे जाएगा कैसे विचार तो चलेगा ही वृत्ति की दिखाई दिशा पर वो ऊपर कैसे उठेगा आस्मान की ओर वृत्ति को तो जीच सकता है सिर्फ आत्मा की ओर प्रेम ये बात ध्यान रखने की है जो लोग सोचते विचारते बहुत हो पहली बात ये ख्याल रखें कि सोच कर सच तक नहीं पहुचा जा सकता और दूसरी बात वो ये ख्याल रखें कि अगर सोचना ही है तो ये भी सोचो कि सोचने वाला कौन है पहली बात मैंने बोली वो उनको विनमरता में रखेगी और दूसरी बात मैंने बोली उसी को आत्मविचार कहते हैं इतना ही सोचते हो तो ये भी देख लो कि सोचने वाला कौन है कहां से आये सोचने वाला, किस बिंदों से उठ रहा है विचार विचार जैसे ही पलट करके अपने स्रोत को देखता है अन्होनी घट जाती है विचार का रुपांतरन बलकि परिमार्जन हो जाता है विचार का केंद्र ही बदलने लग जाता है खट से कुछ जैसे बिजली जल गई उतना ये अंतर जैसे कि आप एक सिनेमा हॉल में बैठे हों और सामने स्क्रीन को देख रहे हों वहाँ पे क्या चल रहा है एकदम धूम धड़ा का प्रकाश और थ और प्रोजेक्टर प्रक्षेपक पूरा महाल बदल जाएगा कि नहीं आप देख रहे थे सामने और खोई वह थे बिल्कुल सामने रंगा रंग नजारें एक्तम और अचानक कुछ हुआ और ऐसे पीछे मुढ के देखने लगे भीतरी महाल बदल जाएगा नहीं बदल जाए� यह सब कहां से आ रहा है यह सब जो है यह कहां से आ रहा है थोड़ा देखूं और जैसे यह प्रोजेक्टर दिखाई देता है वैसे ही जादू टूट जाता है यह प्रयोग करके देख लीजिएगा खासतौर पर जिन ख्षणों में पर देखा जादू सरचड़कर बोल रहा ह थोड़ा जुशलाएंगे जरूर आप कहेंगे देखो पैसा वरबात कर दिया एकदम मजा आ रहा था और सब उतर गया फितूर लेकिन कुछ बात पता चल जाएगी दोसर रुपए का जो टिकट है उससे कहीं ज्यादा कुछ वसूल हो जाएगा सुझ प्यार है ये बात विचार के गुलाम मत बन जाओ श्री कृष्ण की निकटता सीखनी है अर्जुन से अर्जुन के भीतर का कुहरा उधार नहीं ले लेना है और हमारी हालत जबरदस्त है हमारे पास वो सब कुछ है जो अर्जुन के पास है बस एक चीज नहीं है हम हर माइने में अर्जुन है अर्जुन का पूरा नर्क हमारे पास है, बस अर्जुन की एक चीज नहीं है हमारे पास, क्या? कृष्ण, क्या खूब है हम, जो कुछ भी अर्जुन का ऐसा है, कि त्याज्य भ्रमित वह हम्में और अरजन में साझा है बस जो एक चीज है जो अरजन को बचा लेती है उसका कहीं अतापता नहीं हमारे जीवन में कृ जो कुछ अर्जुन के अंतस में है वो आपकी विवश्टा है विवश्टा समझी आ सकती है क्योंकि उसको हम गर्भ से लेकर पैदा होते हैं यह अर्जुन के मन में जो कोहरा चाया हुआ है वो अर्जुन भर का नहीं है वो मनुष्य मात्र का है वो सब का है और वो सब हम लोग लेकर पैदा होते हैं कृष्ण विवश्टा नहीं होते, कृष्ण चुनाव होते हैं कृष्ण मजबूरी नहीं होते कृष्ण आपकी स्वतंतरता के प्रतीक हैं आपके पास ये विकल्प था, स्वतंतर निर्णे करने का उसर था कि आप कृष्ण को अपना बना लें, कृष्ण की निकटता को चुन लें अर्जुन जैसे आप हैं ये बात तो स्पष्ट है सर्वमान्य है निर्विवाद है एक तरह से आप निर्विकल्प हैं अर्जुन होने में सब अर्जुन पैदा हुए हैं हाँ किसी अर्जुन का नाम अर्जुन है किसी अर्जुन का कोई और नाम हो सकता है सब अर्जुन है पैदा होने के बाद आपको तै करना होता है कि कृष्ण का सामीप्य चाहिए या नहीं तो आपको चुनना होता है जिनोंने चुन लिया उनके लिए पूरी गीता है जिनोंने नहीं चुना उनके लिए बस पहला अध्याय उनकी गीता पहले अध्याय पर शुरू होकर खत्म हो जाती है उनकी गीता एक बंद कमरा है जहां बस उनके अपने अशुरंजत प्रलाप की गूँज भर है कोई उत्तर नहीं आता कृष्ण साथ हो तब तो आपकी दलीलों का आपके वक्तव्यों का कोई उत्तर आएगा न जिनके पास कृष्ण नहीं है उनके पास बस अपनी हस्ती है और अपनी हस्ती एक बंद कमरे जैसी होती है गूँजता हुआ बंद कमरा जहां आप जैसे हैं आपको चारों दिशाओं से उसी की अनुगूँज सुनाई देती है बस आप अपना सत्य स्वयम बन जाते हैं तोकि आप से जो अलग हैं वो तो आ काम आदमी की गीता में कितने अध्याय हैं? बस पहला क्योंकि दूसरे से तो कृष्ण आ जाते हैं कृष्ण तो हैं ही नहीं हमारे पास हाँ अर्जुन हम सब हैं तो पहले अध्याय में जो कलपना रोड़ना पीटना चल रहा है वो हम सब के पास है इस विभट स्थिते का थोड़ा चिंतन करिए ज़रा कलपना ज़रा संग्यान लिजिये हमारी व्यक्तिकत गीता शुरू होती है हमारे छाती पीटने से और समाप्त हो जाती है हमारे छाती पीटने पर दुख में आरंब दुख में अंत दुख के बंद वर्तुल से बाहर कहीं कोई सत्य नहीं हमारे लिए हमारे ही अस्तित्व की चार दीवारें जैसे हमारा एक मात्र सत्य हमारे ही वृत्तिगत विचारों की अनुगूंज जैसे हमारे सारे समवाद कैसी प्रगते, कैसा ज्ञान और कैसी मुक्ते हैं? यह है आम मनुष्य का जीवन, एकध्याई कि कृष्ण निकट हो तो बाकी सत्र खुलें कि ऐसे खोलेंगे बाकी सत्र बोलो तो कि सबके जीवन में यह मचा हुआ है कोलाहल जमा हुआ है कुरुकशेत्र ठीक सबके पास अपने-अपने युद्ध हैं और अपने-अपने तरख हैं अपनी जटिलताएं, अपने बंधन हैं और उन बंधनों में बने रहने को जायस ठहराते अपने तरक। कौन आकर आपको बताए कि आपके सारे तरक जूठे हैं, कौन आकर आपको बताए कि आपके सब कर्मों के आधार उठले हैं। कौन आपको आकर बताएगी जीवन की इमारत ही आपने जिस नियू पर खड़ी करी है, कोई गहराई नहीं उसमें, बड़ी सांक्यतिक है ये बात.
कि श्रीमत भगवत गीता में संजय बोल लेते हैं, दृतराश्र बोल लेते हैं, दुर्योधन बोल लेते हैं, अर्जन खूब बोल लेते हैं, तब श्री कृष्ण की बारी आती है। हमारे जीवन में भी यही सब मौजूद हैं और यही बोले जा रहे हैं, और यह इतना बोले जा रहे हैं, कि बचारे कृष्ण की बारी कभी आती नहीं, पूरा जीवन बीच जाता है, इनहीं की बोल बाचीत में, बोले जा रहे है कितने किरदार, दुर्योधन ने तो नाम गिना दिये, उधार इतने खड़े हैं, इधार इतने खड़े हैं, नाम इतने खड़े हैं, इधार इतने हैं, और हर किरदार अपने आपने एक उपन्यास है, एक महा काव्य है सबका जीवन। मैं छोटा था तो घर में महाभारत पर आधारित उपन्यासों की एक शंकला होती थी राम कुमार भ्रमर दोरा रचेत अभी कुछ दिनों पहले मैंने देखा तो मेरे संग्रहाले में उसमें से एक मिल गया उन सब की विशेष्टा ये थी कि सब के नाम अ से आरम्ब होते थे तो करण पराधारित जो था उसका नाम था अधिकार वो अभी भी मेरे पास मेरे कमरे में रखा है एक पात्र का जीवन अपने आप में एक महा गाता है उससे पार कैसे पाओगे तुम्हें कितने साल जीशी ना है कितने सारे नाम और कि सब नाम अपने पीछे एक पूरी महागाथा रखे हुए हैं हर नाम अपने आप में एक संसार है तुम कैसे उसके पार निकल जाओगे तुम्हारे पास 60-80 साल है कुल 60-80 साल अपनी गाथा से पार पाने के लिए पूरे नहीं पड़ते हैं यहां तो इतनी सारी गाथाएं है कृष्ण पतीक्षा करते रह जाते, ये गाताएं कब समाप्त होंगी, मेरा नंबर कब आएगा, हुँ? अर्जुन सभागेशाली है कि कृष्ण से एक बड़ी भौतिक निकटता थी। सूक्ष्म नहीं, पारमार्थिक नहीं, भौतिक। सामने खड़े हैं कृष्ण। बस इसी बात ने बचा लिया। सामने खड़े हैं। हमें गीता में ऐसा पढ़ने को नहीं मिलता, पर अगर आपके पास जरा भी रसपूर्ण मन है, यदि थोड़े भी कविर्दे हैं आप, तो आप देख पा रहे होंगे कि कैसे कृष्ण की आखें भी बात कर रहे होंगी, और वो बातें श्लोकों में लिखित नहीं हैं. कुछ कह रहे हैं अर्जुन और अर्जुन की बदमाशी को समझ करके कृष्ण के होट जरा से कपे और आखें उनकी मुस्कुरा दीं ये बात किसी श्लोक में वर्णित नहीं है पर कृष्ण के अधर यदि कांपे न होते, कृष्ण के नयन यदि मुस्कुराय न होते, तो अर्जुन को वो बास समझ में भी नहीं आई होती, जो गीता में समझ में आ गई है, इसलिए मैं कह रहा हूँ कि भौतिक निकटता बहुत जरूरी है। अन्यथा श्लोक तो किसी पुस्तक में भी लिखे जा सकते थे। सही बात तो यह है कि गीता उपनिशदों का मृत भर है। कोई नया सिधान्त नहीं प्रतिपा देते हैं गीता में। कृष्ण अर्जुन को यह भी कह सकते थे कि चलो ऐसा करते हैं कि चांदों के उपनिशद का पाठ कर लेते हैं। और कर लेते हैं मानिके दोनों को थोड़े ही करना है मैं तो कृष्णू मैं क्या करूँगा तुम कर लो मैं तुम्हें सूची दिये देता हूं निशादों की शाम तक पढ़कर आ जाना और प्रायह सभी उपनिशद गीता पूर्व हैं कुछ है उपनिशद बात के भी जो ज् प्रमुख उपनिशद अधिकांशत पहले के हैं तो कह सकते थे कि कठ के चांदों के ब्रहदारन्यक प्रश्न उपनिशद जाओ अर्जुन पढ़ करके आ जाओ बात बनती ही नहीं संभावना तो यह है कि अर्जुन ने उन उपनिशदों का पाठन पहले ही कर रखा है राजपुत्र थे उनकी शिक्षा दिख्षा में तो कोई कमी रखी नहीं गई थी अर्जुन नहीं कर रखा धुर्योधन ने भी कर रखा है अब ऐसे में वो अर्जुन को बोलते कि जाओ पाठ करके आओ क्या लाब होता कृष्ण को स्वेम एक उपनिशत बनना पड़ा यही बात बचा ले गई अर्जुन को, नहीं तो हमारे ही जीवन में, जो हम मौजूद हैं और जो हमारे मौजूद हैं, उनकी महा गाथाएं हमको कभी मौका नहीं देने वाली हैं, कि हम कृष्ण की बारी आने दें, कृष्ण की बारी कभी आएगी नहीं, अर्जुन के भी ज अरे वो भाई खड़ा है, वो गुरू खड़े है, वो मातल खड़े है, जीजा भी है मेरे, जैदरत बैनो ही लगता है, इन सब के चक्करों के बाद कृष्ण की बारी आने की कोई संभावना? आपके जीवने भी ये सब मौजूद हैं, ये कृष्ण की बारी कभी नहीं आन कि अर्जुन सभाग्यशाली है कि श्री सामने खड़े हैं कृष्ण की बारी आई नहीं कृष्ण ने झपट ली अपनी बारी नहीं तो अर्जुन ने तो निर्णय कर लिया था दनुष नीचे रख दिया था मैं नहीं लड़ रहा और कृष्ण से अनूति नहीं लग रहे थे न लड़ने की कृष्ण को अपना निर्णय घोषित कर रहे थे सुना रहे थे मैंने लड़ रहा मै कृष्ण ने तो हारी हुई बाजी पलट दिये, नहीं तो अर्जुन ने तो बाजी का निर्णे करी दिया था अपनी तरफ से, हम सब अपनी बाजी का निर्णे कर चुके हैं अपनी तरफ से, और हम स्वेम अपनी बाजी नहीं पलट पाएंगे, समझिए इस बात को, हम सब को रती और सारती में कितनी दूरी होती है, बस उतनी दूरी पर कृष्णा आपको चाहिए, और नहीं है, तो बाजी का फैसला अग्रिम रूप से हो चुका है। कि सिधानत की बात है कि मनुष्य मुक्ति के लिए पैदा होता है व्यवहार की बात है कि मुक्ति पाते तो किसी को देखा गया नहीं कि सिधानत आपको बोलता है कि मनुष्य योणि आपको मिली है ताकि आप मुक्ति प्राप्त कर सकें व्यवहार की बात है कि लाखों करोड़ों में कोई होता है जो मुक्ति पाता है मनुष्य जन्म तो दासता के लिए जीवन भर बंधन उठाने के लिए मिलता है अ अर्जुन एक विरल उदाहरण है एक विशिष्ट अपवाद का और इसीलिए हमारे काम के हैं क्योंकि हम सबको उसी अपवाद बनने की लालसा है उसी अपवाद की तलाश है हम सबको पैदा तो हुए हैं बंधन गरस्त रहने के लिए क्या मुक्त मिल सकती है आरंभ में अर्जुन बिल्कुल हमारे जैसे हैं, फिर ऐसा क्या हो जाता है कि अर्जुन की भाग्य रेखा बिल्कुल अलग दिशा में मुड़ जाती है, हमसे बिल्कुल भिन्न किसी और निकल जाते हैं अर्जुन, ऐसा क्या होता है, ऐसा जो भी होता है अर्जुन के करे नह जब कृष्ण बोल रहे थे तो रत से कूद के भाग नहीं गए। अर्जुन को कुल श्रे बस इस बात का है। नहीं तो कृष्ण जो बोल रहे हैं वो बात स्वीकार करने की नहीं। ग्रहन कर भी लो तो पचने की नहीं। कृष्ण ने जो बातें गीत वो आपको पीट पाट बरावर कर देगा। वो तो कृष्ण को परंपरागत रूप से हम पूजते हैं। तो इसलिए किसी प्रकार आम आदमी गीता को बरदाश्ट कर लेता है। नहीं तो सच्चाई तो यह है कि हमारा आम जीवन गीता के ज्ञान के बिलकुल विपरीत चलता तुम यह चीज़ें गलत कर रहे हो बस यह न बताएं कि यह जो मैं तुम्हें बता रहा हूं यह बात गीता से आ रही है तो आप उस व्यक्ति का पुरजोर विरोध करेंगे हां यही वो बोल दे कि मैं गीता का ज्ञान दे रहा हूं तो आप नैतिकता के मारे और धार्मिकता क तो इतनी गीताएं आई और गईं, हमारा जीवन वैसे ही कैसे चल रहा होता जैसे चल रहा है, हमने खुब विरोध किया है गीताओं का, समझ में आ रही है बात कुछ, उस शण को अनुभव करिये, उस शण में पहुँचिये, कृष्ण कुछ ऐसा कह रहे हैं, जो बिल्कुल और यही वो क्षण है जिसने अर्जुन को अमर कर दिया। उस क्षण में अर्जुन कृष्ण से विमुख नहीं हुए। अर्जुन की फीतर से प्रवल आवेग उठ रहा है। कृष्ण तुम मुझे। पित्र द्रोही, भात्र द्रोही, कुल द्रोही बनाओगे? तुम मुझे से मेरे ही वंश का नाश कराओगे ये जौला मुखी का लावा उठ रहा है भीतर से आग लग गई है कृष्ण की अर्जुन की काया में क्योंकि अर्जुन की काया है तो कुरुवंश की काया ही न वास्तव में जब काया की बात आती है तो अर्जुन की काया और दुर्योधन की काया में बहुत समानता है। कृष्ण की काया तो तरह दूर की है और काया अपने आपको बचाने के लिए बड़ी उद्यत रहती है। जानवरों में भी आप देखेंगे तो आमतोर पर। कोई भी पशु अपनी ही प्रजाति का शिकार नहीं करता है काया बड़ा ध्यान रखती है कि जो मेरे जैसे हैं उनको न मारूं और कृष्ण कह रहे है अर्जुन से तुम इन्हीं को मारो अर्जुन के भीतर से विरोध का आक्रोश का जॉला मुखी फूटा है और मैं कह रहा हूँ अर्जुन ने उस क्षण में न भागने का जो निर्णय किया है उसी ने अर्जुन को अमर कर दिया धर्म के सकल क्षेत्र में अर्जुन का कुल योगदान यही है कि उस क्षण को जहेल गए अर्जुन जिस क्षण रोआ जल कर चिला कर कह रहा था चले जाओ यहाँ से, भाग जाओ यहाँ से, मत सुनो इस व्यक्ति की, यह व्यक्ति ठीक नहीं है, यह तुमसे कुछ ऐसा करा रहा है, जो बहुत घातक होगा, इसका क्या जाता है, घर तो तुम्हारा है, वो भाई तुम्हारे है, वो गुरु तुम्हारे है, वो पितामोह त बीतर जो वृत्य बैठी है वो पाशविक होती है तरक वो ऐसे ही देती है ऐसे तरक आपने पहले कभी सुने नहीं किया ऐसे तरक आपने अपने जीवन में नहीं सुने किया अपने घर में नहीं सुने किया आप में और अर्जुन में अंतर बस ये कि आप इन तरकों के आगे घुटना टेक देते हैं अर्जुन खड़े रहे अर्जुन गिरे नहीं बस इतना कर दिया और अध्यात्म आप से बस कुल इतनी ही मांग भी रखता है जब सामने आ जाए वो खास जब क्षण चा जाए वो खास, बस भाग मत जाना, हम कहते हैं कि हम उस क्षण को आने का मौका ही नहीं देंगे, भागने की नौबत ही नहीं आने देंगे, भागने की नौबत तो तब आये न, जब पहले कृष्ण सामने खड़े हो करके हमें ज्यान दे रहे ह हम ऐसी इस्थिती नहीं आने देंगे कि हमारे साथ ये भैंकर दुरघटना घटे हम कृष्ण को अपने सामने खड़े होने का मौका ही नहीं देंगे ना रहेगा बास, ना बजेगी बास रहेगी ना होंगे कृष्ण, ना आएगी गीता जब गीता आएगी ही नहीं तो भगने भागने की कोई बात ही नहीं पहली बात अर्जन हो ही, दूसरी बात अपने जीवन का सर्वस्व भी आहुति देकर यदि कृष्ण के सामने खड़े हो सकते हो तो हो जाओ, तीसरी बात सिर्फ खड़े होना पर्याप्त नहीं है, जब गीता बहनी शुरू होगी तो तुम्हारे भीतर से भी आवाज यही उ बह मत जाना, जब गीता बरसे, तो खड़े रहना, वृत्ति की सुरक्षा छतरी मत खोल लेना, अपने आपको भीगने देना, जितना भीगोगे उतना गलोगे, जितना गलोगे उतना तरोगे अर्जुन वाच कुल के नाश से चले आ रहे कुल के धर्म नश्ट हो जाते हैं और कुल धर्म के नश्ट होने से पाप समस्त कुल को दबा लेता है तो अर्जुन के अनुसार उन्हें युद्ध हिसलिए नहीं करना है क्योंकि उन्हें कुल के धर्म की बड़ी चिंता है कुल का धर्म बचाना है, कुल धर्म नष्ट हो गया तो पाप सारे कुल को दबा लेगा, तो सारोजनिक हित में अर्जुन कह रहे हैं कि मुझे युद्ध नहीं करना है, नहीं, मेरे मोहो वित्यादी की कोई बात ही नहीं है, मैं तो एक वीर, निर्पेक्ष, निस्प्रहक, श मोह इत्यादी तो मुझे चूँ नहीं जाते मोह तो बात है हाँ कुल धर्म की है मैं इसलिए युद्ध नहीं करना चाहता बड़ी गंभीरता से बड़ी निश्पक्षता से मैं आपके सामने एक सम्वेदनशील मुद्धा रख रहा हूँ कृष्ण भावकता वगरे कोई बात नहीं है ना मुझे कोई भाव है मैं तो एक गंभीर वयस्थ की भाते कुल के लाभ की बात कर रहा हूँ जैसे हम सब गंभीर वयस्थ होते हैं और बड़ी बुद्धिता पूर्ण और परिपक्को बातें किया करते हैं ऐसा है वैसा है बस इतनी थी बात है कि हमारी सब परिपक्को और गंभीर बातों के पीछे हमारी बच्चकानी, अधपकी, वृत्ति छुपी होती है। थोड़ी दर पहले क्या कह रहे थे, सारे विचार कहां से आते हैं?
वृत्ति से आते हैं। विचारोंने गंभीरता का चोला पहन रखा होता है। उनका व्यवहार ऐसा होता है, उनका व्यक्तित्व ऐसा होता है, उनका चेहरा ऐसा होता है, कि लगता है कि कोई गहरी ब जबकि उनके स्रोत में क्या होती है? कोई बालक वृत्ती, मेरा सेब छिन गया है, मुझे फलाने की शगल नहीं पसंद आ रही, मुझे डर लग रहा है मुझे अंधेरे में बंद कर देंगे, मुझे डर रख रहा है मुझे अकेला छोड़ देंगे, इस तरीके की बालक जैसी और इन वित्तियों से उठते हैं बड़े गंभीर विचार विचार जो सम्मान की मांग करते हैं कहते हैं देखो हम गहरे हैं हमें सम्मान दो जरा हमारी बधिक्ता को नमन करो जरा बुद्धि तो सेवक की भी सेवक होती है। आत्मा की दासी वृत्ति, वृत्ति की दासी बुद्धि। वृत्ति को क्यों तुम अपनी स्वामिनी बना रहे हो। बुद्धि को। अभी आगे और धुरंधर तरकाने वाले हैं सीट बेल्ड बांद लें हे कृष्ट कुल में अधर्म का प्रभाव होने से कुल की इस्त्रियां दूशित हो जाती हैं और हे वार्षने कि इस तरहों के दूशित होने से वण संकर संतान पैदा होती है तो अर्जुन कह रहे हैं कि देखिए असली बात यह है कि मुझे ना राज्य की इस तरहों के बड़ी चिंता है मैं तो लड़ाई नहीं करना चाहता अ बिचारी इस तरह दूशित जाएंगे नहीं लड़ाई तो मैं कर लूं आप बोलिए अभी एक बाद पर इनमें से एक नाम लिखा हुआ है अ कि अब मेरे एक बार से ऊपर की किसी की हस्ती नहीं की एक बार में भीष हूं एक में कर्न एक में द्रोण सब निप्ता दूंगा भी वह तो मैं जरा कि गंभीर किस्म का आदमी हूं ऊंचे विचारों वाला चिंतक हूं दूरदर्शिता पूर्ण आगे की सोच रखता हूँ, तो अभी-अभी मैंने आगे की सोची और मुझे इसमें दिखाई दिया कि हमारी बिचारी इस्त्रियों का क्या होगा, तो इसलिए मुझे लग रहा है कृष्ण की हमें लड़ाई नहीं करनी चाहिए, काश कि हम इस वक्त देख पाते कृष्ण का और इसे वापस में लड़के जाएंगे मर तो ख्षत्रियों की जो पत्नियां होंगी या ख्षत्रियों में जो इस्त्रियां होंगी वो सब अन्य वर्णों में विवाह कर लेंगी तो वर्ण संकर पैदा होगा और वर्ण संकर बड़ी गड़बड चीज होता है क्या पहुचावा तरक मारा है? आप मुस्कुरा रहे हैं, सोचिए कृष्ण क्या कर रहे होंगे? बड़ी मुश्किल से तो हसी रोकी होगी अपनी.
उस अतिगंभीर क्षण में भी, भीतर से... अटास लगबग फूठी आया होगा कि वा बेटा मुझे ही चरा रहे हो स्त्रियों की चिंता कुल के हित की इतनी बात वरणों का तुम इतना ख्याल करने लग गए तुम्हारे पूरे जीवन में तो हमें वर्णवाद कहीं ज्यादा दिखाई नहीं देता अर्जुन। अचानक से तुम्हें छत्रियों की इस्त्रियों की वर्ण रक्षा की इतनी सुधा आ गई। सब कुछ बोल रहे हो नजाने कहां से तरक गढ़ कर ला रहे हो बस एक बात नहीं बोल पा रहे है। मुझे पकड़ लिया है शरीर में बहता रक्त कह रहा है अपने ही जैसे रक्त को कैसे बहा दूँ और रक्त यह इसलिए नहीं कह रहा है कि रक्त सहसा चैतन नहीं उठा है रक्त यह इसलिए कह रहा है क्योंकि रक्त में दुनिया भर के पशु बैठे हुए हैं, ये वक्तव्य हर पशु का है, अपने ही जैसे किसी का रक्त कैसे भादूं, घोर से घोर हिंसक प्रजाति भी साधारन तया हमने कहा, अपनों का शिकार नहीं करती, इसमें चेतना की कोई बात नहीं है, इसमें प्रक्र कि प्रकृत्ति चाहती है कि आपका वंश आपका कुल आपकी प्रजात्य बनी रहे यह काम हर पशु करता है यह काम अभी अर्जुन कर रहे हैं अर्जुन पशुवत हुए जा रहे हैं लेकिन पशुता अपने आपको छुपाने के लिए बुद्धिमत्ता का स्वांग कर रही है पशुता हमेशा यही करती है। वास्तव में जहां गई आपको बुद्धिमत्ता बहुत दिखाई दे रही हो। संभावना यही है कि उसके पीछे पशुता बैठी होगी। बुद्धिमत्ता अपने गुरु गंभीर लहजे में कोई बड़ी महत्वपूर्ण बात कह रही होगी, पर कान है यदि आपके पास और ध्यान है यदि आपके पास, तो आप सुनेंगे कि बुद्धिमत्ता की गंभीरता के पीछे कोई पशु हलके गुर्रारा होगा। ये जानवर है जो बुद्धि का इस्तेमाल करके अपने उद्देश्य पूरे कर रहा है जिनने सुनना आता है वो सुन लेते हैं वो बुद्धिके व्यक्तव्यों में पशु की गुर्राहट सुन लेते हैं आगे और अभी वर्ण संकर विवरण चलता ही रहता है। तो वर्ण संकर कुलनाशकारियों और कुल के नरक की प्राप्ति के लिए हैं। क्योंकि इन लोगों के श्राध तरपण आदिकार्य लुप्त होने से उनके पितर लोग पतित हो जाते हैं। तो मान्यता, समाजिक मान्यता, अध्यात्मिक बिल्कुल नहीं। इस तरह की बातें विदानत में दूर तक नहीं पाई जाती हैं। विदानत तो इस तरह की बातों को काटने के लिए हैं, ठीक वैसे जैसे अर्जुन ने भी ये बात कही है और कृष्ण इस बात को काट देंगे। तो इन बातों को धर्म की किंद्री ये बात बिलकुल न समझा जाए। पतन हो जाता है, ये बात एक सामाजिक मान्यता हो सकती है, ये बात एक अंधविश्वास हो सकती है, पर इस बात का समर्थन विदांत कहीं से नहीं करता है। तो कुल नाशकारियों के इन वर्ण संकरकारक दोशों से सनातन जाति धर्म और कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं। तो अर्जुन को बड़ी चिंता है पितरों की अब, अब वो भी राज्य भर के पितरों की, वो जितने मर चुके हैं सौ, दो, सौ, आठ सौ साल पहले अर्जुन कहे रहे, देखो उनकी खातिर नहीं लडूंगा मैं, क्योंकि अगर वर्ण संकर पैदा हो गए तो वर्ण संकरो उनको तृप्ति कैसे मिलेगी? कितने उंचे विचार है?
आम आदमी तो सिर्फ जीवित लोगों की परवाँ करता है. अर्जन तो सैकड़ों साल पहले मरों की भी परवाँ कर रहे है. कि देखो पितरों का क्या होगा? पहले बोले स्त्रियों का क्या होगा?
वो बेचारी स्त्रियां, उनको ख्षत्रियां नहीं मिलेंगे कि तथा कथित नीचे वाले वर्णों से विवाह आदि करेंगी और मेल कर लेंगी तो इस तरीयों की चिंता हुई फिर इस तरीयों के बाद जो इस तरीयों से अवलादें पैदा होंगी उनकी बड़ी चिंता हुई अर्जन को देखो वर्णसंकर पैदा जाएगा ना वर्णसंकर जीवन भर का यह वर्णसंकर जैसे कर्ण वर्णसंकर इस सूत जो होते थे वह एक प्रकार के वर्णसंकर ही थे कि कर्न को दीवन भर लगा रहा मैं सूत पुत्र कर दो तो देखो वर्ण संकर पैदा होगा बचारे को बड़ी तकलीफ हो जाएगी फिर बोले अरे वर्ण संकर तो वर्ण संकर हो जो वर्ण संकर के दादा पर दादा मरे थे उन बचारों का क्या होगा कृष्ण कह रहे है माया तो मेरी ही है पर मैं भी चमुत्करत हो जाता हू अब फिर क्या रहे हैं? और हे जनारदन, और फिर जिन लोगों का कुल धर्म नष्ट हो गया है, उन्हें अनिवारे रूप से नरक जाना पड़ता है, ये बात हमने सुनी है, तो इन सब लोगों को नरक जाना पड़ेगा, अच्छी बात नहीं है, तो ये नरक ना जाएं, इस लड़ाई माफ करो, क्या कर रहो ये सब, तुम हतियार हितियार लेके कठ्ठे हो गए हो, नाचो खेलो, कूदो, खाओ, घर जाओ, अपनी ओर से तो, अर्जुन अब आश्वस्त हैं कि निर्णे पर आ गए हैं, सारे तरक एक ही दिशा में संकेत कर रहे हैं, म और आगे चलाकी देखिएगा, हाई कैसा दुरदैव है, कैसा दुरभाग्य है, कि हम लोग महान पाप करने को उद्यत हैं, यह नहीं कह रहे हैं, मैं महान पाप करने को उद्यत हूँ, साथ में कृष्ण को भी लपेट लिया, हाई यह कितने दुरभाग्य की बात है, कि हम लो इसलिए मैं कहा करता हूँ कि बाद में है ये कौरवों और पांडवों के बीच का संघर्ष पहले तो ये अर्जुन और कृष्ण के बीच का संघर्ष है अर्जुन चाल चल रहे हैं अर्जुन पासा फेंक रहे हैं ये दाव है ये मानसे की उद्ध है साइकलोजिकल वारफेर है कि अरे देखो कितने दुरभाग्य की बात है कि हम लोग पाप कर रहे हैं कि बातों में कृष्ण को इशारा दे दिया है कि कृष्ण मैं आपको भी पापी समझ रहा हूं क्योंकि आप मुझे और कोई आप मेरी बातों के प्रतिकूल तर्क दे मत दीजिएगा क्योंकि मैंने आपको पहले बता दिया है कि जो मेरी बातों के विरुद्ध जाएगा मैं उसको पापी समझूंगा तो अर्जुन के अनुसार कृष्ण को थोड़ा डर जाना चाहि इसको ज्ञान और गएरा दूं तो कहीं महापापी या कुछ और ही बड़ी बात न बोल दे तो इससे अच्छा है कि अपना सम्मान सम्हाल कर रखो और जादा कुछ बोलो ही मत और कहा दो अर्जुन तुमने जो करा ठीक मैं भी तुमारे साथ हूँ चलो वापस चलते हैं भूमेंगे फिरेंगे इतनी बड� हाई कैसा दुर्दायव है कि हम लोग महान पाप करने को उद्यत हैं क्योंकि राज्य प्राप्ति रूप सुख पाने की आशा से स्वजनों की हत्या करने के लिए सन्नद्ध हुए हैं दिखिए क्या कराया है धर्म को नीचे गिराया है कहा है कि नहीं हम धर्म के लिए नहीं लड़ रहे हैं तो लड़ने के पक्ष में जो बात कही जा सकती थी उस बात को गिरा दिया कहा दिया नहीं हम धर्म के लिए थोड़े लड़ रहे थे हम तो लड़ ही रहे थे लालच के लिए और लड़ने के विरोध में जो बातें कही जा सकती थी उनको उठा दिया समझ रहे हो धर्म को गिर और अधर्म को उठा दिया अधर्म के उपर अच्छाई का, नैतिकता का कि आवरण पहना करके यह काम हम सब करते हैं कोई अच्छा काम कर रहा होगा उसको तत्काल क्या देंगे उसका उसमें कोई स्वार्थ होगा इसलिए तो कर रहा है ठीक वैसे जैसे धर्मयुद्ध को यहां पर अर्जुन ने गिरा दिया और यह कहकर कि अरे यह तो राज्य और रुपए और सक्ता के लिए की जा रही लड़ाई है अ वो जो युद्ध है वो वास्ताओं में सत्ता के लिए नहीं है वो धर्म के लिए है लेकिन अर्जुन ने उस युद्ध को अलग ही तरह से परिभाशित कर दिया क्योंकि धर्म की राह चलना नहीं है कैसे कह दें कि धर्म की राह चलना नहीं है तो धर्म को अधर्म घोशित कर जैसे कोई आप से पूछे, कि सहाब आप इधर उधर का तमाम कचरा पढ़ते रहते हैं, कभी संत साहित्य क्यों नहीं पढ़ते, तो आप कहें, अरे संतों का क्या है, इन्होंने तो जो करा, अपनी ही दुकान चलाने के लिए और प्रसिद्धि पाने के लिए करा, और मेरे प इन्होंने क्या करा है? इन्होंने कह दिया है कि संत धर्म की खातिर नहीं प्रसिद्धी की खातिर काम करते थे। ठीक? उसी तरह यहाँ पे अर्जुन तरकते रहे हैं कि युद्ध धर्म की खातिर नहीं है। यह युद्ध सत्ता की खातिर है। अगर कह दिया कि युद्ध सत दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है, हमारी आंतरिक दुनिया में, वो सदा धर्म और अधर्म के बीच का संघर्ष है। उसमें हमें अधर्म का पक्ष जब भी लेना होता है, हम कुछ तरक देकर धर्म को नीचे गिराते हैं। और कुछ तरक देकर अधर्म को उठाते हैं। उधारण के लिए आप ये तरक दे लोगे, कोई हो जाया सामने, आपको सिद्ध करना है कि आपको उस व्यक्ति के साथ नहीं जान आप कहते हैं कि आप भी तो पैसे के लिए काम करते हो अब आसान हो जाएगा उस व्यक्ति की बात को नकारना तो मतलब भीतरी व्यवस्था ऐसे काम करती है हमारे उद्देश्य सब गरहित पतित होते हैं, उन पर हम उचाई का आवरण पहना देते हैं। और सचाई जो वास्तों में उची होती है, उस पर हम कीचड के शीटे मार देते हैं। उसको नीचे खींचने का प्रयास कर लेते हैं, ताकि लगे कि वो कोई व्यर्थ की चीज है। ये सब कुछ करने के पीछे उद्देश है हमारा बस एक होता है अधर्म का साथ देना आप पूछेंगे अगर अधर्म का साथ ही देना है तो इतनी महनत क्या करनी है इतनी हम में हिम्मत नहीं इतने खोले अधर्मी हम नहीं हो पाते हमारी मजबूरी यह है कि हमें अधर्मी भी होना है और स्वयं को धर्मी घोशित भी करना है हुं तो हमें अपने अधर्म को धर्म का नाम देना अवश्यक हो जाता है क्योंकि हम डरे हुए लोग हैं हम अधर्म के पक्ष में भी डरे हुए हैं और सत्य को सीधे ठुकरा देने का साहस नहीं हमें तो हम बाता आ रही है समझ में सबका अंतरिक खेल ऐसे ही चलता है यदि आत्मरक्षा का प्रेतन न करने वाले मुझ अशस्त्र धारी को धृतराश्टर पुत्र विद्धक्षेत्र में मार डाले तो भी वे मेरे लिए अधिकतर कल्यानकारी होगा अर्जुन ने निशकर्ष निकाल लिया बोले इन सब बातों से अब ये सावेथ होता है कि मैं यहां मरी जाओं तो वो बहतर है पर मैं लड़ाई कि स्वयं ही तरक रचे और अपने ही तरकों से और ज्यादा सुनिश्चित अनुभव करने लगे कि बात तो मैं ठीक ही कह रहा हूं वह क्या बात कही है मैंने और यह बात मैंने बोल दी है तो इससे यह प्रमाणित होता है कि कि न सिर्फ मुझे उन्हें नहीं मारना है बल्कि यदि वह मुझे मार भी दें तो मैं स्वीकार कर लूंगा मुझे तो यूं लग रहा है जैसे यह सब कुछ कृष्ण को प्रभावित करने के लिए कि देखिए श्री कृष्ण यह बात तो दूर किया कि मैं जैसे कृष्ण को जताया जा रहा है कि मुझे अब समझाने की कोशिश भी बेकार है। देखिए कृष्ण प्रयास भी मत करियेगा मैं बहुत दूर निकल चुका हूँ। ये एक तरह से कृष्ण को हतोचाहिद किया जा रहा है। अब कोई मुझे पर आप युक्ति मत आजमाईएगा। फैसला हो चुका है मैं आपसे बहुत दूर जा चुका हूँ। सारे तरक मेरे पक्ष में है। और मुझे बड़ी गहराई से सुनिश्चित हो चुका है कि सही क्या है मैं जान चुका हूँ अब आप व्यर्थी मुझे समझाने बुझाने का प्रयास करेंगे समय खराब होगा और कुछ नहीं देख सकते हो तो देखिए कि अर्जोन ने कृष्णी की ओर कैसे देखा होगा ये मानके कि इसको तो अब मैंने परास्थी कर दिया, बेटा तू तो अब हार चुका है, सर्व प्रत्वं ये मल्ल युद्ध कृष्ण और अर्जुन के बीच है, और अर्जुन ने अपने दाव चल दिये, आएगी, कृष्ण की बारी आएगी पर पहले अर्जुन के दाव पेचों को समझना जरूरी है, पहले अर्जुन बन जाना जरूरी है, आप अर्जुन नहीं बनोगे तो कृष्णा आपको पटकेंगे कैसे, बन जाएए पहले अर्जुन, सहमत हो जाएए अर्जुन से आप भी पूरी तर है, क्योंकि आप अर्� असत्य के प्रते जितना आगरह यहां दिखा रहे हैं वो आपकी अपनी असत्य निष्ठा है बेही मानी तो संजे कहते हैं कि अर्जून इस प्रकार कहकर कृष्ण से वो किसी प्रकार की अनुमति की प्रतीक्षा भी नहीं कर रहे, बस अपना वक्तव्य सुना दिया है, निरणा एकोशित कर दिया है। अर्जुन इस प्रकार कहकर युद्धक शेत्र में बान सहित धनुष को छोड़कर शुकाकुल चित्त से रत के पिछले भाग में बैठ गए। शारीरिक रूप से भी वह एक खुला संकेत दे रहे हैं कि अब मुझे पर प्रयास भी मत करना कृष्ण। मेरा तो खेल खत्म हो चुका है ये सब प्रतीक होते हैं शत्रु को तरीके से जताया जाता है कि शत्रु तुम बाजी हार चुके हो यहाँ पर अर्जुन कौरवों को तो शत्रु मारने से इंकार ही कर रहे है तो अर्जुन ने शत्रु बना किसको रखा है कि कृष्ण को और कृष्ण पर ही अर्जुन इस तरीके के प्रयोग कर रहे हैं कि जाकर कि पीछे बैठ गए हैं कि देखिए इस पश्चित हो जाए कि मुझे आप समझाने बजाने की कोशिश करेंगे तो आपकी अपनी मानहानी होगी क्योंकि आप मुझसे बोलेंगे मानूंगा तो मैं है नहीं तो कृपया प्रयास भी न करें और कृष्ण प्रयास करते हैं प्रयास कुछ ऐसा प्रबल होता है इतना जबरदस्त कि बीसों शताबदियां बीच चुकी है कि मरने वाले चले गए मारने वाले चले गए कौन सा हस्तेनापुर कौन सा कुरुख शेत्र कहां धनुष्य कहां गदाएं कहां कौरव कहां पांडव लेकिन भगवद्ध गीता सूर्य की तरह आज भी चमक रही है कि अ एक अध्याय अर्जन का सत्रा अध्याय कृष्ण के