हमारी इस धरती पर प्रकृति ने अपनी पूरी मेहरबानी बरसाई है इस सौरमंडल में सिर्फ पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जहां प्रकृति ने अपने दोनों हाथों से और पूरी तन्मयता के साथ इसे विकसित किया है अभी तक की वैज्ञानिक उन्नति के आधार पर हम कह सकते हैं कि हमारे इस पूरे ब्रह्मांड में पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जो कि इस ब्रह्मांड का सबसे सुंदर ग्रह है यहां पर पानी लिक्विड फॉर्म में उपस्थित है तो वहीं इसके वायुमंडल में गैसों का अनुपात भी जीवन को विकसित करने के लिए ही बना है जीवन को लगातार विकासशील बनाने के लिए धरती पर ऊंचे ऊंचे पहाड़ों से लेकर गहरी खाइयो का निर्माण हुआ है लंबे चौड़े साफ घास के मैदान हैं तो वहीं कहीं पर आसमान छूते पेड़ों से भरे घने जंगल मौजूद हैं आंखों से दिखाई नहीं देने वाले छोटे बैक्टीरिया से लेकर के हाथी जैसे विशाल काय जीव मौजूद है धरती पर पानी में तैरने वाले विशाल काय जीवों से लेकर के आकाश की ऊंचाई तक उड़ने वाले पक्षी भी इसे और भी ज्यादा खूबसूरत और मन को मोह लेने वाला बना देते हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों से धरती की यह खूबसूरती धीरे-धीरे खतरे की ओर बढ़ रही है पृथ्वी की इस खूबसूरती को धरती पर रहने वाले सबसे बुद्धिमान जानवर यानी इंसान की नजर लग गई है पिछले कुछ दशकों में पृथ्वी के एवरेज टेंपरेचर में काफी बदलाव देखे गए हैं जहां कभी भी बारिश की बूंदे नहीं बरसती थी जहां सिर्फ बारिश के रूप में बर्फ गिरती थी उन जगहों पर भी बारिश की बूंदे गिरने लगी है रेगिस्तान का विस्तार होने लगा है मौसमों का समय बदलने लगा है बेमौसम बरसात होने लगी है तो वहीं कहीं-कहीं पर सूखा पड़ने लगा प्राकृतिक आपदाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है बाढ़ और जंगल में लगने वाली आग तो इस समय की सामान्य घटनाएं हो गई है यह इतनी सामान्य हो गई है कि धरती पर हर समय कहीं ना कहीं जंगलों में आग लगी हो रही होती है और जंगलों में लगने वाली आग की चपेट में धरती के फेफड़े कहे जाने वाले अमेजन के जंगल भी बचे नहीं रह सके हैं धरती की खूबसूरती में चार चांद लगाने वाले जीवों की अनेकों प्रजातियां अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष करती दिखाई देती है तो वहीं बहुत सी प्रजातियां ऐसी भी हैं जो हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो चुकी हैं इस सबके पीछे एक ही कारण है और वह कारण है मनुष्य की भौतिक उन्नति अपने आप को बहुत ज्यादा एक्टिव समृद्ध और अपने जीवन को आरामदायक बनाने के लिए मानव ने हर प्रकार के हथकंडे अपनाए हैं मानव ने हर वह कदम उठाया है जिसके दम पर वह अपने जीवन को आसान बना सके फिर इसके लिए उसे चाहे कितना ही प्रकृति को खत्म क्यों ना करना पड़े वो इससे पीछे नहीं रहता धरती पर मौसम कभी भी बदल सकता है एक पल में ही जहां बारिश से भरे बादल नहीं हो वहां तेज बारिश हो सकती है तो वहीं दूर-दूर तक तूफान की कोई संभावना ही नजर ना आए वहां पर भयंकर तूफान आ सकते हैं मौसम एक अस्थाई बदलाव है जो समय के साथ हर समय बदलता रहता है लेकिन जलवायु एक ऐसा फैक्टर है जो हजारों लाखों सालों तक एक जैसा ही बना रहता है आजकल धरती के इस क्लाइमेट यानी जलवायु में काफी सारे परिवर्तन देखने को मिले हैं लगातार बदलती जलवायु की वजह से धरती के तापमान में परिवर्तन आ रहा है जिसके कारण धरती पर गर्मी बढ़ रही है इस बढ़ती गर्मी के कारण समुद्रों का जल स्तर भी बढ़ रहा है जिसके कारण समुद्र में स्थित छोटे-छोटे टापुओं वाले देश अपने आप को बचाए रखने के लिए संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं बदलती जलवायु के कारण अनेक प्रकार की बीमारियां बढ़ रही हैं जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य पदार्थों के उत्पादन में भी परिवर्तन देखने को मिला है इस परिवर्तन को देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ओ ने क्लाइमेट चेंज को इस शताब्दी का सबसे भयानक संकट कहा है बढ़ते इस पर्यावरणीय संकट को अनेक प्रकार की रिसर्च डाटा के आधार पर एनालाइज करने पर यह पाया गया है कि पिछले कुछ दशकों में धरती के एवरेज टेंपरेचर में लगभग 1 डिग्री से 2 डिग्री तक की बढ़ोतरी देखी गई है जहां 1850 से 1900 तक के पाच दशक में धरती के एवरेज टेंपरेचर में बढ़त लगभग 0.95 डिग्री सेल्सियस तक रही है तो वहीं साल 2011 से 2020 के दशक में यह लगभग 1.20 डिग्री सेल्सियस तक रही है इस तरह से यह माना जा सकता है कि 1850 से लेकर के 2020 तक के समय में धरती के एवरेज टेंपरेचर में लगभग 1.05 डिग्री सेल्सियस तक का बदलाव आया है जलवायु परिवर्तन से संबंधित डटा के अनुसार सतह के तापमान में हर साल लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है साल 1950 के बाद से धरती के वातावरण में ठंडे दिनों और ठंडी रातों की संख्या में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी महसूस की गई है तो वहीं गर्म दिनों और गर्म रातो की संख्या में बहुत ज्यादा बढ़ोतरी भी देखी गई है कुछ लोगों का मानना है कि हो सकता है कि धरती के तापमान में लगातार हो रही इस वृद्धि के लिए मानव को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि इस तरह तापमान में होने वाले बदलाव और जलवायु परिवर्तन के प्रमाण हमें मानव के अस्तित्व में आने से पहले के समय में भी देखने को मिलते हैं तो वैज्ञानिक इस बात को स्वीकार करते हैं कि मानव के अस्तित्व में आने से पहले भी धरती के तापमान में और कार्बन डाइऑक्साइड गैस की सांद्रता में भी परिवर्तन आए थे इन परिवर्तनों के कारण धरती पर अलग-अलग प्रकार के पर्यावरण में बदलाव हुए थे लेकिन वर्तमान समय में मानव को इसलिए दोषी ठहराया जाता है क्योंकि जब मानव के अस्तित्व में आने से पहले का क्लाइमेट चेंज डटा देखें तो उस समय जिस तरह के ग्लोबल वार्मिंग के इफेक्ट देखे गए थे वह बहुत ही धीमे-धीमे अस्तित्व में आए थे उस समय वातावरण के बदल की गति बहुत ही कम थी तो वहीं कार्बन डाइऑक्साइड के कंसंट्रेशन में बदलाव भी बहुत ही धीमे-धीमे हुए थे लेकिन पिछले कुछ दशकों में मानव की गतिविधियों के कारण वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता में इतनी तेजी दर्ज की गई है कि जितनी पृथ्वी के अस्तित्व में आने के बाद कभी भी दर्ज नहीं की गई इसलिए इस सबके लिए मानव की भौतिक उन्नति को जिम्मेदार माना जाता है इसके प्रभाव हम आसानी से महसूस सूस कर सकते हैं बारिश का मौसम बदलने लगा है प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं में तेजी आने लगी है पहले जहां पर बसंत ऋतु आने पर फूल खिलते थे वे अब बसंत ऋतु आने से पहले ही खिलने लगे हैं पृथ्वी के वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत का तापमान भी लगातार कम हो रहा है जो इस बात की ओर इशारा करता है कि धरती के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ गई है धरती के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड में क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसी ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ गई है ग्रीन हाउस गैस की एक निश्चित मात्रा हमारे वायुमंडल में धरती के लिए एक तरह से सुरक्षा कवच का काम करती है यह हमारे वायुमंडल में रहकर के धरती के चारों तरफ एक ऐसा सुरक्षा कवच विकसित करती है जिसके कारण धरती के तापमान को पेड़ पौधों और जीवों के रहने लायक बनाया जाता है अब सवाल यह है कि यह ग्रीन हाउस गैसेस हमा हमारी धरती के लिए कितनी आवश्यक है तो इसे आप इस बात से समझ सकते हैं कि चंद्रमा पर कोई भी वायुमंडल नहीं पाया जाता है वहां पर धरती के वायुमंडल की तरह कोई भी ग्रीन हाउस गैस भी नहीं पाई जाती है जिसके कारण दिन के समय में चंद्रमा की सतह का तापमान 100 डिग्री सेल्सियस से ऊपर होता है तो वही रात में उसी सतह का तापमान माइनस में 150 डिग्री से नीचे होता है अगर ऐसा ही हमारी धरती के साथ भी होता तो दिन का तापमान तो हमें जला कर के भस्म कर देता तो वही रात का तापमान हमें पूरी तरह से बर्फ बनाकर खत्म कर देता मतलब जीवन का नामो निशान कहीं पर दिखाई नहीं देता और इतनी सुंदर दिखाई देने वाली यह धरती भी इस सौरमंडल के दूसरे ग्रहों जैसी बेजान और बंजर होती ग्रीन हाउस गैस से सूर्य से आने वाली किरणों को धरती की सतह तक आने देती है और धरती की सतह तक पहुंची यह किरण रिफ्लेट लेक्ट होकर के वापस अंतरिक्ष में जाने की कोशिश करती है रिफ्लेक्ट होकर के अंतरिक्ष में जाने वाली इन किरणों को इन ग्रीन हाउस गैसेस के द्वारा रोक लिया जाता है जिससे धरती के चारों तरफ के औसत तापमान को बनाए रखा जा सके लेकिन धरती के वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत जहां का तापमान लगभग 1500 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है वहां का तापमान अब गिरने लगा है पहले धरती के वायुमंडल में पाए जाने वाली गन हाउस गैस रिफ्लेक्ट होने वाली किरणों का कुछ ही भाग अवशोषित कर पाती थी और बाकी की किरणें रिफ्लेक्ट होकर के धरती के वायुमंडल की ऊपरी परत से होते हुए अंतरिक्ष में चली जाती है ऐसा इसलिए होता है क्योंकि धरती के वायुमंडल में पाई जाने वाली ग्रीन हाउस गैस का कंसंट्रेशन आज की तुलना में बहुत ही कम था जबकि आज लगातार धरती के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों का कंस कशन बढ़ता ही जा रहा है लगातार बढ़ते इस कंसंट्रेशन की वजह से रिफ्लेक्ट होने वाली सूर्य की किरणें ग्रीन हाउस गैसेस के द्वारा सोक ली जाती है और उनकी बहुत ही कम मात्रा वापस अंतरिक्ष में पहुंच पाती है इस कारण से वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत का तापमान गिरने लगा है 1970 के बाद से धरती के वैश्विक तापमान की तुलना में धरती की सतह का तापमान लगभग दो गुना तेजी से बढ़ा है धरती की सतह पर अलग-अलग जगह पर अलग-अलग तापमान होता है यह तापमान इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि कहां पर ग्रीन हाउस गैसेस की मात्रा ज्यादा है और कहां पर ग्रीन हाउस गैसेस की मात्रा कम है क्योंकि वायुमंडल में पाई जाने वाली ग्रीन हाउस गैसेस पूरी धरती पर बराबर मात्रा में फैली रहती है इस वजह से बढ़ते तापमान का असर पूरे विश्व में दिखाई देता है 1970 के बाद से लगातार बढ़ते इस तापमान ने ही धरती के तापमान को बढ़ा दिया है जिससे महाद्वीप गर्म हो गए हैं और बर्फ पिघलने लगी है जब हम धरती के गर्म होने के आंकड़ों को देखते हैं तो पाते हैं कि उत्तरी गोलार्ध और उत्तरी ध्रुव दक्षिणी गोलार्ध और दक्षिणी ध्रुव की तुलना में तेजी से गर्म हुए हैं उत्तरी गोलार्ध में सबसे ज्यादा जमीन है तो वहीं यहां पर बारिश के रूप में बर्फ गिरती है उत्तरी गोलार्ध में ही धरती की सबसे ज्यादा बर्फ पाई जाती है तो वहीं यहां पर समुद्री बर्फ भी बहुत ज्यादा मात्रा में पाई जाती है जिसके कारण समुद्रों की बर्फ पिघल करके दुनिया के महासागरों में मिलने लगी है तो वहीं इसका प्रभाव अंटार्कटिका की बर्फ पर भी पड़ा है अंटार्कटिका महाद्वीप की बर्फ पिघल करर सीधे समुद्र के पानी में मिल रही है जिसके कारण एक कमजोर गल्फ स्ट्रीम का जन्म होने लगा है इस कमजोर गल्फ स्ट्रीम की वजह से समुद्र के तापमान में अनियमित परिवर्तन आ रहे हैं इसी अनियमित परिवर्तन के कारण समुद्र के बहाव में भी बदलाव आया है इस बदलाव के कारण धरती के मौसम में तेजी से बदलाव को महसूस किया जा रहा है लेकिन अब सवाल यह उठता है कि जब हम इस तरह के बदलाव को महसूस कर रहे हैं तो इन सब बदलाव के पीछे वे कौन से कारण हैं जिन्हें ठीक करके हम धरती को खत्म होने से बचा सकते हैं तो वहीं वे कौन से फैक्टर है जिसके कारण धरती के वैश्विक तापमान में इतनी ज्यादा वृद्धि महसूस की जा रही है तो धरती की जलवायु जो है वह हमेशा से बदलती आई है लगातार बदलती इस जलवायु के पीछे धरती से बाहर के फैक्टर्स भी जिम्मेदार होते हैं जैसे कि सूर्य की ऊर्जा में कमी ज्वालामुखी का विस्फोट सूर्य के चारों ओर जिस ऑर्बिट में धरती चक्कर लगाती है उस ऑर्बिट में बदलाव के कारण धरती पर समय-समय पर अनेक प्रकार की ग्लोबल वार्मिंग इफेक्ट महसूस किए गए हैं अब सवाल यह हो सकता है कि अगर धरती के वातावरण में होने वाले ग्लोबल वार्मिंग इफेक्ट का कारण धरती के बाहर के फैक्टर्स हैं तो फिर मानव को इन सबके लिए जिम्मेदार क्यों ठहराया जाता है तो बात ऐसी है कि जब हम धरती का तापमान बढ़ाने वाले इन सारे फैक्टर्स को देखते हैं तो पाते हैं कि इनका प्रभाव इतना ज्यादा नहीं है क्योंकि अगर हम सौर तूफान को धरती के तापमान में होने वाली वृद्धि के लिए जिम्मेदार माने तो इससे धरती के हर हिस्से का तापमान बढ़ना चाहिए लेकिन तापमान वृद्धि के डेटा एनालिसिस से तो हमें यही बात पता चलती है कि धरती की ऊपरी परत के तापमान में इस तरह के कोई भी बदलाव नहीं देखे गए हैं जबकि धरती की सबसे नीच परत में ही इस तरह के बदलाव को महसूस किया गया है जिसका साफ-साफ मतलब यह है कि धरती की सतह पर कुछ ऐसा हो रहा है जिसके कारण धरती के वायुमंडल की सबसे नीचल परत का तापमान बढ़ रहा है तो वहीं वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत के टेंपरेचर में किसी भी तरह का कोई परिवर्तन या कहे कि तापमान में वृद्धि को दर्ज नहीं किया गया है जो कि इस बात की ओर इशारा करती है कि धरती के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की कंसंट्रेशन बहुत ज्यादा बढ़ गई है हमारी यह धरती सूर्य से आने वाले प्रकाश को अवशोषित कर लेती है और उसके बाद उसे हीट वेव्स के रूप में वापस अंतरिक्ष में रिफ्लेक्ट भी कर देती है अंतरिक्ष में रिफ्लेक्ट होने वाली यह हीट वेव्स धरती के वायुमंडल से होकर गुजरती है धरती के वायुमंडल में पाई जाने वाली ग्रीन हाउस गैस के द्वारा इन्हें अवशोषित कर लिया जाता है जिसके कारण पूरी धरती के औसत तापमान को नियंत्रित किया जाता है धरती पर ग्रीन हाउस इफेक्ट पैदा करने में सबसे बड़ी भूमिका वाटर वेपर्स की होती है यह धरती पर ग्रीन हाउस इफेक्ट के लिए अकेले ही 50 पर के लिए जिम्मेदार होती है लेकिन लगातार बढ़ती मानवीय उन्नति के कारण औद्योगिक क्रांति के बाद बहुत ज्यादा फॉसिल फ्यूल का उपयोग बढ़ा है तो लगातार बढ़ते फॉसिल फ्यूल के उपयोग की वजह से धरती के वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की सांद्रता में बहुत ज्यादा वृद्धि को दर्ज किया गया है यह आंकड़े कितने ज्यादा डराने वाले हैं आप इन्हें देख सकते हैं जहां 1750 में धरती के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता लग लग 48 प्र थी तो वहीं यह सांद्रता 2019 में बढ़कर के 160 प्र तक हो गई है वहीं अगर हम मीथेन जैसी ग्रीन हाउस गैसेस में होने वाली वृद्धि के आंकड़े देखें तो यह बहुत ही ज्यादा चौकाने वाले हैं औद्योगिक क्रांति के बाद से मीथेन गैस की सांद्रता में वृद्धि इतनी तेज हुई कि जितनी पिछले 8 लाख सालों में भी नहीं हुई है तो क्लाइमेट चेंज से जुड़े आंकड़े बहुत ही ज्यादा डराने वाले हैं साल 2018 के अगर हम ग्रीन हाउस गैसेस के आंकड़ों को देखें तो यह हमें आने वाले बहुत ही बड़े खतरे की घंटी जैसे दिखाई देते हैं साल 2018 में मानव द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसेस का अगर आंकड़ा देखा जाए तो कार्बन डाइऑक्साइड का उत्पादन लगभग 52 बिलियन टन था इस कुल ग्रीन हाउस गैसेस के उत्पादन में लगभग 72 प्र हिस्सा कार्बन डाइऑक्साइड का 19 प्र हिस्सा मीथेन गैस का 6 प्र हिस्सा नाइट्रस ऑक्साइड का और लगभग 3 प्र हिस्सा फ्लोरिनेटेड गैस का था तो यह वृद्धि पिछले कई लाख सालों में होने वाली वृद्धि से कई गुना ज्यादा है कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्पादन मानव के द्वारा जीवाश्म इंधन को अधिक मात्रा में जलाने से होता है तो वहीं बढ़ती जनसंख्या के लिए आवास और भोजन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव ने तेजी से जंगलों को काटने का काम भी किया है जिसके कारण भी धरती के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ी है इसके अलावा सीमेंट स्टील एलुमिनियम और उर्वरक बनाने वाली फैक्ट्रियों में होने वाली केमिकल रिएक्शन की वजह से भी ती के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ी है तो वहीं धरती के वायुमंडल में मिथेन गैस की मात्रा पशुओं के खाद चावल की खेती लैंडफिल बेकार पानी कोयले का खनन और साथ ही साथ धरती से निकाले जाने वाले तेल और गैस के कारण भी बहुत ज्यादा बढ़ी है धरती पर नाइट्रस ऑक्साइड का उत्पादन जमीन में पाए जाने वाले बैक्टीरिया के कारण होता है यह बैक्टीरिया वायुमंडल की नाइट्रोजन गैस को नाइट्रस ऑक्साइड में बदल देते हैं जो पौधों के लिए फर्टिलाइजर का काम करती है लेकिन उत्पादन बढ़ाने के लिए मानव ने कृषि के क्षेत्र में भी आर्टिफिशियल फर्टिलाइजर को काम में लेना शुरू कर दिया है मानव ने फसल उत्पाद उ दन क्षमता को बढ़ाने के लिए फर्टिलाइजर का उपयोग इतनी तेजी के साथ किया है कि धरती के वायुमंडल में नाइट्रस ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा चिंता का विषय बन गई है धरती की ऊपरी सतह के नीचे पाए जाने वाले बैक्टीरिया मानव के द्वारा डाले गए केमिकल फर्टिलाइजर को सिंपल सब्सटेंस में तोड़ देते हैं सिंपल सब्सटेंस में तोड़ने के बाद यह बैक्टीरिया नाइट्रस ऑक्साइड का उत्पादन करते हैं जो वायुमंडल में एक तरह से ग्रीन हाउस इफेक्ट पैदा करती है तो लगातार बढ़ती जनसंख्या की भोजन और आवास की पूर्ति करने के लिए मानव तेजी से धरती के जंगलों को खेती की जमीन में बदलने का भी काम कर रहा है जिसकी वजह से धरती के जंगल तेजी से खत्म होते जा रहे हैं तो लगातार तेजी से खत्म होते इन जंगलों की वजह से धरती के वायुमंडल की कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में परिवर्तन महसूस किए जा सकते हैं वर्तमान समय में धरती की कुल 34 प्र भूमि सिर्फ खेती करने के काम में आती है तो वहीं लगभग सिर्फ 26 प्र हिस्से में ही जंगल बचे हैं बाकी के 30 प्र हिस्से में रेगिस्तान और बर्फ से ढके बड़े-बड़े ग्लेशियर मौजूद हैं इस तरह से हम देखते हैं कि धरती पर ग्रीन हाउस गैसेस को बढ़ाने में सबसे बड़ा योगदान कृषि भूमि का बढ़ना है आज के समय में धरती पर जंगलों का क्षेत्रफल कम है तो वहीं कृषि करने योग्य भूमि का क्षेत्रफल बहुत ही ज्यादा है धरती के इस भूमि परिवर्तन के कारण धरती के वातावरण में ग्लोबल वार्मिंग इफेक्ट पैदा हो रहा है धरती के क्लाइमेट चेंज के लिए ज्वालामुखी को भी सदर माना जाता है लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद कभी भी एक भी सबसे प्रभावशाली शक्तिशाली ज्वालामुखी विस्फोट को अभी तक नहीं देखा गया है अभी तक ऐसे ज्वालामुखी को फटते हुए नहीं देखा गया है कि शक्तिशाली ज्वालामुखी विस्फोट के कारण निकलने वाली गैस और धूल के कारण धरती का वायुमंडल पूरी तरह से ढक गया हो जिससे सूरज से आने वाली रोशनी धरती की सतह तक नहीं पहुंच पाती और धरती का औसत तापमान गिरने लगता लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद से अभी तक ऐसा कोई भी ज्वालामुखी विस्फोट नहीं हुआ है तो वहीं धरती की सतह पर होने वाले छोटे ज्वालामुखी विस्फोट के कारण निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा मनुष्य के द्वारा उत्पादन किए जाने वाले कार्बन डाइऑक्साइड मात्रा से 1 प्र से भी कम है यानी हम कह सकते हैं कि ज्वालामुखी के द्वारा उत्सर्जित की जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा मनुष्य के द्वारा उत्सर्जित की जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा का 1 प्र की बराबरी भी नहीं करता है तो हम कह सकते हैं कि औद्योगिक क्रांति के बाद धरती के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा के लिए औद्योगिक क्रांति ही जिम्मेदार है धरती पर बढ़ते तापमान के लिए सूरज से से आने वाली सौर विकिरण को भी जिम्मेदार माना जाता है सूर्य से आने वाले सौर विकिरण का प्रभाव धरती के क्लाइमेट पर पड़ता है लेकिन साल 1600 से अभी तक के सौर किरणों के डटा के अनुसार धरती के वायुमंडल में तापमान को बढ़ाने जैसा कोई भी प्रभाव देखा नहीं गया है अगर सौर किरणों की मात्रा बढ़ती तो धरती का आयन मंडल और शोभ मंडल भी गर्म हो जाते लेकिन डाटा हमें यह बताता है कि धरती के वायुमंडल की सबसे नीच परत ही सबसे ज्यादा गर्म हो रही है तो वहीं धरती के वायुमंडल की सबसे ऊपरी परत का तापमान लगातार कम होता जा रहा है जो कि इस बात की ओर इशारा करता है कि सूरज से आने वाली सौर किरणों की मात्रा में कोई बहुत ज्यादा वृद्धि महसूस नहीं की गई है सौर विकिरण में होने वाली वृद्धि इतनी भी ज्यादा नहीं है कि यह धरती के तापमान को इस तरह से प्रभावित कर सके ग्रीन हाउस गैसों के कारण धरती के तापमान में होने वाली वृद्धि सहित अनेक प्रकार के हानिकारक रिजल्ट हो सकते हैं जैसे-जैसे धरती के तापमान में बढ़ोतरी होती जाएगी वैसे-वैसे पानी के वेपराइजेशन की रेट भी बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी जिससे वायुमंडल में घने बादल बन सकते हैं और लगातार बनते घने बादलों के कारण सूरज से आने वाली किरणों को धरती की सतह पर पहुंचने से पहले ही रिफ्लेक्ट कर दिया जाएगा जिसके कारण धरती की सतह का तापमान कम होने लगेगा और हमार यह ग्रह एक बार फिर से हिम युग के दौर में पहुंच जाएगा हां पर हर तरफ बर्फ ही बर्फ दिखाई देगी अब अगर यह माना जाए कि बादल बहुत ज्यादा ऊंचाई पर पहुंच जाएंगे और वे पतले हो जाएंगे तो ऐसी सिचुएशन में यह बादल इंसुलेटर के रूप में काम करेंगे जिससे यह सूर्य से आने वाली विकिरण को अवशोषित नहीं करेंगे जबकि यह सूर्य से आने वाली किरणों को सीधे ही धरती की सतह तक पहुंचा देंगे जिससे ग्रह का टेंपरेचर बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा और चारों तरफ इस बढ़ते टेंपरेचर के कारण हर तरह के प्राकृतिक चक्र गड़बड़ा जाएंगे वातावरण में लगातार बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों के कारण ध्रुव पर जमी हुई बर्फ लगातार पिघल रही है जिसके कारण समुद्र का जल स्तर भी बढ़ रहा है वैसे एक अनुपात के मुताबिक 1993 से लेकर 2020 तक समुद्र के जल स्तर में हर साल लगभग 3 प 3 मिलीमीटर की वृद्धि हुई है वैज्ञानिकों के अनुसार 21वीं सदी में तो यह आंकड़े बहुत ही ज्यादा चौकाने वाले होंगे क्योंकि 21वीं सदी से मानव की फॉसिल फ्यूल पर लगातार बढ़ती निर्भरता की वजह से ऐसा माना जा रहा है कि समुद्र का जल स्तर 61 सेंटीमीटर से लेकर के लगभग 110 सेंटीमीटर तक बढ़ सकता है एक अनुमान के मुताबिक वातावरण में बढ़ती गर्मी के कारण ग्लेशियरों की बर्फ की मोटी मोटी चादर पिघल करर समुद्र में मिल रही है तो अगर इस उत्सर्जन को नहीं रोका गया तो साल 2100 तक समुद्र का जल स्तर लगभग दो मीटर तक बढ़ जाएगा समुद्र के जल स्तर में इतनी बड़ी वृद्धि समुद्र में स्थित टापू वाले देशों के लिए अस्तित्व के सवाल खड़े कर सकती है आने वाले समय में हो सकता है कि आने वाले समय में हमें दुनिया के बहुत से देश इस मानचित्र से गायब होते हुए दिखाई दे क्योंकि वे समुद्र की गहराई में समा जाएंगे वातावरण में लगातार बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा के कारण समुद्रों के जल में ऑक्सीजन की मात्रा घट रही है क्योंकि समुद्र का जल वातावरण की कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर लेता है जिसके कारण समुद्रों का पानी पूरी तरह से एसिडिक होता जा रहा है एसिडिक होते समुद्र के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा भी घट रही है और वैश्विक तापमान में वृद्धि से समुद्र का पानी भी छूटा हुआ नहीं है लगातार बढ़ते ट टेंपरेचर के कारण समुद्र का पानी भी तेजी से गर्म हो रहा है और हम जानते हैं कि गर्म पानी में ऑक्सीजन की मात्रा बहुत ज्यादा कम होती है इस कारण से भी समुद्र के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा में तेजी से कमी आई है और ऑक्सीजन की इसी कमी के कारण महासागरों की गहराई में रहने वाले जीव जंतु और पेड़-पौधे अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए लगातार संघर्ष कर रहे हैं अगर यह सिचुएशन नहीं बदली तो आने वाले समय में हमें समुद्री जीवों और समुद्री पेड़-पौधों की बहुत सारी प्रजातियों को विलुप्त होते हुए देखना पड़ेगा इसे आप इस तरह से समझ सकते हैं कि लगभग 1.5 डिग्री सेल्सियस से 2 डिग्री सेल्सियस तक के तापमान में होने वाली वृद्धि के कारण पश्चिमी अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड की बर्फ लगातार तेजी से पिघल रही है लेकिन यह माना जा सकता है कि इनके पिघलने की दर कई शताब्दियों तक लगातार चलने वाली होगी लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बर्फ के पिघलने की गति कम होने की वजह से धरती की जलवायु पर कोई भी असर नहीं पड़ेगा लगातार पिघलती बर्फ और गर्म होते समुद्रों के कारण महासागर की धाराओं में बदलाव हो सकते हैं सबसे बड़ी चिंता का विषय तो अटलांटिक मेरिडियन ओवरटर्निंग सर्कुलेशन का बंद होना है जिसके कारण उत्तरी अटलांटिक यूरोप और उत्तरी अमेरिका महाद्वीप में जलवायु परिवर्तन बहुत ही तेजी के साथ और बहुत ही लंबे समय तक प्रभाव डालेंगे ऐसा नहीं है कि बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा का असर बुरा ही हुआ है इसके कुछ फायदे भी हुए हैं उनमें से एक फायदा हुआ है कि बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों के कारण वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तेजी से बढ़ी है जिसके कारण पेड़ों की संख्या भी बढ़ने लगी है हम कह सकते हैं कि पूरे विश्व में हरियाली का प्रतिशत बढ़ा है तो वहीं बढ़ती गर्मी के कारण ठंडे पानी में और मीठे े पानी में रहने वाली अनेक प्रजातियां ध्रुवों की ओर जाने को मजबूर हुई हैं लगातार बढ़ती हीट वेव्स के कारण दुनिया भर में जीवों और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए भोजन की उपलब्धता कम हो गई है एक तरफ जहां पर ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ने के कारण हरियाली का प्रतिशत बढ़ा है तो वहीं पारिस्थितिकी तंत्र में रहने वाले जीवों के लिए खाने का संकट भी खड़ा हो रहा है इस तरह के विरोधी प्रभाव के कारण यह कह पाना बहुत मुश्किल है कि आने वाले समय में किस तरह का जलवायु परिवर्तन हमें देखने को मिलेगा ग्रीन हाउस गैसों के कारण जलवायु परिवर्तन भी तेजी के साथ बढ़ रहा है इसके कारण रेगिस्तान का विस्तार बहुत ही तेजी के साथ हो रहा है तो वहीं उष्ण कटिबंधीय वन क्षेत्रों में भी तेजी से रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है इसके कारण इस बात की पूरी पूरी संभावना है कि आने वाले समय में जीवों की अनेक प्रजातियां इस धरती से पूरी तरह से विलुप्त हो जाएंगी क्योंकि जब उन्हें उनके रहने के लिए सूटेबल एनवायरमेंट या हैबिटेट नहीं मिलेगा तो वे अपनी जिंदगी को या अपनी प्रजाति को बचाए रखने में सफल नहीं हो पाएंगे इसी कारण एक ना एक दिन उनकी प्रजाति को पूरी तरह से खत्म होना पड़ेगा बदलते एनवायरमेंट और खत्म होते हैबिटेट की वजह से अलग-अलग हैबिटेट में रहने वाली स्पीशीज या तो बच्चे पैदा नहीं कर पाएंगी या फिर पैदा हुए इनके बच्चे इस इस माहौल में इस एनवायरमेंट में जीवित नहीं रह पाएंगे जिसके कारण लगातार घटते हुए इनकी संख्या एक दिन पूरी तरह से खत्म हो जाएगी वैसे जमीन की तुलना में महासागरों का पानी धीरे-धीरे गर्म होता है लेकिन जलवायु परिवर्तन का प्रभाव महासागरों में बहुत ही तेजी से देखने को मिला है यहां ठंडे पानी में रहने वाले जीव महासागरों के पानी के बढ़ते तापमान की वजह से तेजी से बर्फीले क्षेत्रों की तरफ बढ़ने लगे हैं इस कारण से बहुत सी स्पीशीज के लिए बदलते एनवायरमेंट की वजह से जीवन का संकट खड़ा हो गया है वातावरण में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा के कारण समुद्र के पानी में भी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा तेजी से घुलने लगी है जिसके कारण समुद्र का पानी धीरे-धीरे एसिडिक होता जा रहा है लगातार एसिडिक होते समुद्र के पानी के कारण मसल्स वर्णक और कोरल जैसे जीवों के लिए कंकाल खोल बनाना मुश्किल हो गया है बिना कंकाल के या फिर कमजोर कंकाल की वजह से पानी में शिकारियों से अपनी सुरक्षा कर पाना इन जीवों के लिए बहुत ही कठिन काम हो जाएगा लगातार बढ़ती समुद्र की एसिडिक नेचर और गर्म होते पानी और लगातार घटती ऑक्सीजन की मात्रा के कारण समुद्र में जीवों के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन की आपूर्ति धीरे-धीरे घट रही है भोजन की कमी के कारण बहुत से जीवों की प्रजातियां खत्म हो रही है और आने वाले समय में हमें समुद्री जीवन में जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है समुद्र के पानी में लगातार बढ़ती ब्लीचिंग की मात्रा के कारण ग्रेट बैरियर रीफ को खतरा पैदा हो गया है पूरी दुनिया में स्थित है ग्रेट बैरियर रीफ जो कि धीरे-धीरे खत्म होने लगी है ग्रीन हाउस गैसों के कारण धरती के तापमान में होने वाली वृद्धि और बदलते क्लाइमेट के कारण ही साल 2020 में ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में भयानक आग लगी थी इस भयानक आग के कारण ऐसा माना जाता है कि यहां पर लगभग एक करोड़ से ज्यादा जीव जिंदा जल गए थे जिसके कारण हम कह सकते हैं कि ऑस्ट्रेलिया में पाया जाने वाला झाड़ियों का यह पारिस्थितिकी तंत्र पूरी तरह से बर्बाद हो गया तरह से जंगलों में आग लगने वाली घटनाएं लगातार बढ़ते तापमान के कारण सामान्य होती जा रही है अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए मनुष्य तेजी से जंगलों का सफाया कर रहा है पहले ही धरती पर प्राकृतिक आपदाओं के कारण जंगलों पर संकट के बादल मंडराएंगी बल्कि इसका प्रभाव मानव के जीवन पर भी बड़ा ही गहरा पड़ता है जंगलों के खत्म होने से मनुष्य पर सबसे बुरा प्रभाव यह पड़ता है कि मनुष्य के जीवन की बहुत सारी चीजों की आपूर्ति सिर्फ जंगल से ही होती है लेकिन जब जंगल पूरी तरह से खत्म हो जाएंगे तो इन चीजों की आपूर्ति पूरी तरह से बंद हो जाएगी बहुत सारी दवाइयां हमें जंगलों से ही मिलती है जिसके कारण मनुष्य अपने आप को स्वस्थ बनाए रख पाता है लेकिन जब जंगल पूरी तरीके से खत्म हो जाएंगे तो मनुष्य के लिए अपने आप को स्वस्थ बनाए रखना बहुत ही मुश्किल हो जाएगा तो इस तरीके से लगातार बढ़ती ग्रीन हाउस गैसों के कारण धरती का सुरक्षा कवच कहलाने वाली ओजोन परत भी इससे बची नहीं है क्लोरोफ्लोरोकार्बन के मॉलिक्यूल अब वायुमंडल की इस परत तक पहुंचने लगे हैं जिसके कारण यहां पर ओजोन गैस की सांद्रता में तेजी से कमी हो रही है ओजोन गैस की सांद्रता में होने वाली कमी मानव जीवन के लिए किसी खतरे से कम नहीं है क्योंकि ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल में सूर्य से आने वाली अल्ट्रावायलेट किरणों को रोकने का काम करता है जब यह ओजोन परत धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी तो इसके कारण सूर्य से आने वाली अल्ट्रावायलेट किरणें सीधी धरती की सतह तक पहुंचने लगेगी धरती की सतह तक पहुंचने वाली इन अल्ट्रावायलेट किरणों के कारण मनुष्य की डीएनए में भी बदलाव हो सकते हैं जिस जिके कारण मनुष्य बहुत सारी गंभीर बीमारियों की चपेट में आ सकता है जो बढ़ते बढ़ते एक दिन महामारी का रूप ले लेंगी वर्तमान समय में एलर्जी और स्किन से जुड़े रोग और कैंसर जैसी बीमारियां आम हो गई है जहां पहले इन बीमारियों से बहुत ही कम लोग पीड़ित हो पाते थे तो वहीं आज इन बीमारियों से पीड़ित लोग हमारे आसपास एक अच्छी खासी संख्या में मिल जाते हैं हमारे लिए किसी बड़े खतरे से कम नहीं है क्योंकि जहां हम बहुत उन्नति करते हुए अपने जीवन को आरामदायक बनाने की कोशिश कर रहे हैं तो वहीं आरामदायक बनते इस जीवन के कारण हम प्रकृति की भी बलि चढ़ाते ही जा रहे हैं प्रकृति की बलि चढ़ाने के कारण लगातार अनेक प्रकार के बुरे प्रभाव हमें देखने को मिल रहे हैं और क्लाइमेट लगातार बदल रहा है मनुष्य भी इसी क्लाइमेट और इस पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा होने की वजह से इसके प्रभाव से बच नहीं सकता इस कारण से अगर मनुष्य अभी भी नहीं संभला तो आने वाले समय में उसे बहुत ही बड़े-बड़े खतरों का सामना करना पड़ेगा हो सकता है कि एक दिन मनुष्य प्रजाति ही पूरी दुनिया से खत्म हो जाए इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी कि डब्ल्यू एओ के आंकड़ों की माने तो जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाले साल 2030 से 2050 के बीच लगभग 250000 मौतें सिर्फ और सिर्फ क्लाइमेट चेंज के कारण ही होंगे लगातार बढ़ती गर्मी के कारण बच्चों और बुजुर्गों में दस्त मलेरिया डेंगू और कुपोषण जैसे रोग पैदा हो जाएंगे लगातार बढ़ते टेंपरेचर के कारण भोजन की क्वालिटी में भी परिवर्तन आया है तो वहीं इसके उत्पादन में भी परिवर्तन आया है इस कारण से डब्ल्यू एओ का मानना है कि 2050 के आते-आते लगभग 5 लाख से ज्यादा मौतें व्यस्क आयु के लोगों की हो सकती है क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वार्मिंग के कारण भोजन के उत्पादन में भी तेजी से कमी आई है साल 1981 से लेकर साल 2010 के बीच में मक्का गेहूं और सोयाबीन के पूरे विश्व के उत्पादन में बहुत ज्यादा कमी दर्ज की गई है अगर तापमान इसी तरह से बढ़ता रहा तो इसमें और भी ज्यादा कमी दर्ज की जा सकती है जिसके कारण मनुष्य के सामने खाद्यान संकट पैदा हो जाएगा वजह से लगभग 183 मिलियन लोग भूक की चपेट में आ सकते हैं या इससे प्रभावित हो सकते हैं अब ऐसा नहीं है कि ग्रीन हाउ गैसों का प्रभाव सिर्फ खाद्यान जरूरतों पर ही पड़ेगा बल्कि इसका प्रभाव बहुत सारे लोगों को गरीबी रेखा से नीचे भी पहुंचा सकता है विश्व बैंक के एक अनुमान के मुताबिक साल 2030 तक आते-आते पूरी दुनिया में लगभग 120 मिलियन लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाएंगे और गरीबी रेखा से नीचे जाने का प्रमुख कारण क्लाइमेट चेंज ही होगा तो बढ़ती गरीबी के कारण मनुष्य के द्वारा बनाया गया खुद का सामाजिक ढांचा भी टूट जाएगा क्योंकि अपने भोजन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए व्यक्ति अपराध का सहारा लेगा और इस वजह से समाज में तेजी से आपराधिक घटनाएं बढ़ेंगी लगातार बढ़ती इन आपराधिक घटनाओं की वजह से एक दिन मनुष्य का सामाजिक तानाबाना भी पूरी तरह से ढह जाएगा इसलिए जरूरी है कि समय रहते ही हमें अभी ही संभलना चाहिए और हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए एक सुरक्षित भविष्य की नीव रख चाहिए