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नए भारतीय कानून (1 जुलाई से लागू)

नमस्कार मैं रवीश कुमार 1 जुलाई से भारत में तीन नए कानून लागू होने जा रहे हैं भारतीय न्याय संहिता भारतीय साक्ष अधिनियम और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टेलिन ने गृहमंत्री अमित शाह को पत्र लिखा है कि इस कानून को 1 जुलाई से लागू ना करें इन्हें टाल दिया जाए कर्नाटका ने भी कई बिंदुओं को लेकर ऐतराज जताया है इन राज्यों का कहना है कि बिना पर्याप्त विचार मर्ष के जल्दबाजी में तीनों कानून पास किए गए और लागू किए जा रहे हैं पिछली लोकसभा के शीतकालीन सत्र में जब 97 सांसद निलंबित थे उस दौरान यह तीनों कानून पास हुए हैं हमारा यह पहला वीडियो है हम आगे भी वीडियो बनाएंगे इस पर क्योंकि हमारे लिए और आपके लिए दोनों के लिए समझना बहुत जरूरी है देश की अदालतों में लाखों वकीलों को अब सब कुछ नए सिरे से समझना है पढ़ना है वकालत का पेशा ऐसे ही प्रचंड मेहनत का होता है एक वकील किन परिस्थितियों में मेहनत कर अपनी साख बनाता है आपको इस वीडियो से समझ आ रहा होगा अब उसके जीवन में एक नई चुनौती आ रही है पूरा कानून ही बदल जाएगा जिन धाराओं को जिन नंबरों से वकील पहचानते थे अब सब बदल चुके हैं नए प्रावधान आ गए हैं 100 साल से कोर्ट वकील मुवक्किल और जजों के बीच कानून को लेकर एक समझ बन गई वह सब अब अतीत का हिस्सा हो जाएगा 1 जुलाई से सभी को समाज से लेकर अदालत तक को जीरो से शुरू करना होगा या कुछ ऐसा ही है कि आप जिन्हें जमाने से दादाजी कहा करते थे अचानक आपसे कहा जाता है कि आप इन्हें दादाजी ना कहे आपको परिवार का वरिष्ठ संघिता कहना पड़ेगा तो आपको कैसा लगेगा लगेगा कि आप किसी अजनबी के घर में आ गए हैं यही कानून के साथ होने जा रहा है कई धाराओं के नाम बदले गए हैं या क्यों किया गया राम जान धाराओं के नाम हिंदी में रखे गए हैं तो गैर हिंदी प्रदेशों में अलग ही तरह की दिक्कतें आ सकती हैं जनरल जो धाराएं थी जो अमूमन जो रटी रहती थी वह रूटीन में आने में थोड़ा समय लगेगा क्योंकि अभी तक नई किताबों का सरकार के द्वारा कोई पब्लिकेशन नहीं कराया गया है नए वकीलों के पास तो बिल्कुल नहीं है और पुराने वकीलों को भी समस्या आने वाली है क्योंकि वो तो हमसे ज्यादा उम्र दराज है तो उन्हें तो बिल्कुल कंठस्थ है सारी धाराएं और यह जो लगातार रूटीन में रहती हैं और मैं समझता हूं कि केवल वकीलों के लिए नहीं माननीय न्याय अधिकारी गण और जो पुलिस अधिकारी गण है और जो विवेचक हैं उनके लिए भी अच्छी खासी समस्या इसमें क्रिएट होने वाली है और इसके समाधान के लिए आवश्यक यह है कि वृद्ध स्तर पर माननीय उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा इस पर एक लीगल एड प्रोग्राम चलाया जाए उसमें वकीलों को भी शामिल किया जाए उसमें पुलिस कर्मियों को भी शामिल किया जाए उसमें न्यायिक अधिकारी गणों को भी शामिल किया जाए जिससे कि आम जनमानस तक इस कानून को पहुंचने में आसानी हो सके बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने क्यों पत्र लिखकर तमाम बार एसोसिएशन और स्टेट बार काउंसिल से अनुरोध किया है कि वे इन कानूनों के विरोध से दूर रहे वकील भी तो प्रभावित होंगे तो उन्हें विरोध क्यों नहीं करना चाहिए विरोध करने से क्यों रोका जा रहा है इस वक्त लाखों लोगों को ट्रेनिंग दी जा रही है कहीं सरकार जल्दी में तो नहीं है क्या उसे और वक्त नहीं देना चाहिए था आज के ही इंडियन एक्सप्रेस में किरण पराशर और अरुण जनार्दन की खबर है कि कर्नाटका ने इस बात को लेकर ऐतराज जताया है कि तीनों कानून के नाम हिंदी में रखे गए हैं कर्नाटका ने संविधान के अनुच्छेद 348 का हवाला दिया है कि संसद में जो विधेयक कानून के लिए प्रस्तुत होगा वह अंग्रेजी में भी होना चाहिए राजभाषा अधिनियम 1963 में लिखा है कि जिन राज्यों में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है उनसे अंग्रेजी में ही संवाद होगा इसलिए इन विधेयकों को अंग्रेजी में पेश करना अनिवार्य है और उनका हिंदी में अनुवाद होगा हमारे लिए भी सब कुछ नया है मुमकिन है कुछ कमियां रह जाएं लेकिन इस मुश्किल विषय का सामना तो करना पड़ेगा हमने मूल रूप से सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा जयसिंह के लेख और इंटरव्यू को ही फॉलो किया है कोशिश है इस पर हिंदी में बात हो कुछ आप भी जोड़ें और कुछ आप भी भी पूछें आज हमारा फोकस सिर्फ एक सवाल पर है कि क्या भारतीय न्याय संहिता पुलिस स्टेट की अवधारणा को और मजबूत करती है और क्या आप पहले से ताकतवर पुलिस स्टेट के लिए तैयार हैं क्या आप इस वक्त पुलिस से इतना खुश हो गए हैं कि उसे और ज्यादा अधिकार देना चाहते हैं दिया जाना चाहिए लेकिन क्या ऐसे अधिकार दिए जाने चाहिए कि पुलिस ही आप पर हावी हो जाए एक बार ठीक से सोच लीजिएगा भारतीय दंड संहिता अंग्रेजी में आईपीसी के तहत पुलिस आपको गिरफ्तारी के बाद 15 दिनों के लिए ही हिरासत में रख सकती थी नियम था कि गिरफ्तारी के 15 दिन के बाद जुडिशल रिमांड में भेजना अनिवार्य था पुलिस रिमांड गिरफ्तारी के बाद अधिकतम 15 दिन तक मिल सकती थी अब 15 दिन की रिमांड को टुकड़ों टुकड़ों में 60 से 90 दिनों तक कभी भी लिया जा सकता है यानी न महीने तक आप पुलिस के कब्जे में रहेंगे अगर 15 दिन पूरे होने से 1 दिन पहले भी बेल मिल गई तो वह रद्द हो सकती है ऐसा पीआरएस ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है अगर ऐसा हुआ तो सीधा-सीधा आपके बेल के अधिकार पर हमला होगा इस प्रावधान का सरल मतलब तो यही लगता है कि हिरासत 90 दिनों की हो जाएगी पीआरएस की वेबसाइट पर लिखा है कि बेल होगी तो पुलिस दोबारा रिमांड मांगकर बेल कैंसिल कर देगी एक दलील दी जाएगी कि 15 दिनों में पुलिस पुलिस के लिए जांच करना और सबूत जुटाना संभव नहीं होता है तो उसे 90 दिन चाहिए लेकिन 15 दिनों में जांच नहीं हो पाती है इसका समाधान केवल 90 दिनों की हिरासत की अवधि बढ़ाने से नहीं होगा अधिक पुलिस अधिकारी सिपाही और जांच अधिकारी की नियुक्ति से ही इसमें सुधार आ सकता है एक-एक जांच अधिकारी कई-कई केस की जांच कर रहा होता है थाने में जांच अधिकारी के पास क्या सुविधा है संसाधन है और उसकी टीम कैसी है जरा पता कर लीजिए कायदे से सरकार को पहले इसे ठीक करना चाहिए था फिर उसके हिसाब से कानून में बदलाव लाना चाहिए था अब होगा यह कि पुलिस जांच के नाम पर आपको पकड़कर सीधे 90 दिनों के लिए जेल में डाल सकती है एक बार आप हिरासत में होने वाली मौतों और पुलिस की यातना हों की खबरें जरा अखबारों से सर्च कर पढ़ लीजिएगा यह भी कि देश में जब संपादक को अवैध रूप से गिरफ्तार किया जा सकता है तो आप नागरिकों की क्या हैसियत है भारत में 2020 से 2022 तक पुलिस की हिरासत में 4400 लोगों से अधिक की मौत हो चुकी है यूपी में 900 से अधिक कैदी पुलिस की हिरासत में मारे गए हैं इतना बड़ा बदलाव हो रहा है तो जाहिर है कुछ प्रावधान अच्छे भी होंगे नए भी होंगे जैसे पहले पुलिस किसी को कहीं से उठा ले लेती थी कुछ दिनों के बाद उसकी गिरफ्तारी कहीं और से दिखा देती थी अब गिरफ्तारी की वीडियो रिकॉर्डिंग करनी होगी तो क्या यह रुक जाएगा अब नहीं होगा जहां से पुलिस गिरफ्तार करेगी वहीं का वीडियो बना देगी आपको बार-बार यह पूछना है कि भीमा कोरेगांव केस में जिस तरह से सबूत इलेक्ट्रॉनिक सबूत कंप्यूटर में प्लांट करने की खबरें आई आरोप लगे 5-5 साल तक लोगों को जेल में रखा गया बाकी ऐसे कई और केस हैं जैसे हाथरस बलात्कार के समय सिद्दीक कप्पन के साथ क्या हुआ क्या अब ऐसा नहीं होगा इस कानून के बाद नागरिकों के अधिकार इतने सुरक्षित हो गए हैं क्या यह तीनों कानून पुलिसिया जुल्म को रोकने में मदद करेंगे पुलिस रिमांड के समय वकील मौजूद होता है 90 दिनों तक रिमांड के दौरान वकील होगा या रखना पड़ा तो उसका खर्चा आप सोच सकते हैं यह खर्चा किसकी जेब पर भारी पड़ने वाला है दो 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमार बनाम यूपी सरकार के मामले में फैसला दिया कि जैसे ही कॉग्निजेबल ऑफेंस यानी संघीय अपराध का पता चलता है एफआईआर दर्ज होनी चाहिए कुछ ही मामले में अपवाद के तौर पर एफआईआर से पहले प्राथमिक जांच की छूट दी गई भारतीय न्याय संघिता में ऐसे संघे अपराध जिसमें तीन से लेकर 7 साल की सजा का प्रावधान है उनके मामलों में एफआईआर से पहले अब प्राथमिक जांच होगी यह तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के ही खिलाफ है पुलिस आपको 90 दिनों तक रिमांड पर लेकर जेल में रख सकती है लेकिन आप जब एफआईआर कराने जाएंगे गोली लगी होगी सर फटा होगा मान लीजिए तो 15 दिनों तक एसएचओ साहब प्राथमिक जांच करेंगे कर्नाटका ने भी इस प्रावधान को लेकर आपत्ति जताई है इस बात को बार-बार समझने की जरूरत है पहले अगर पुलिस जाती करती थी तो आप मजिस्ट्रेट के पास जा सकते थे राहत की उम्मीद कर सकते थे अब तो मजिस्ट्रेट के पास भी कुछ करने के लिए शायद नहीं बचेगा अब आप बताइए प्राथमिक जांच के लिए पुलिस के पास कितना समय होगा लोग कितने होते हैं किसी थाने में जाकर पता कर लीजिए ऐसे ही एफआईआर बहुत मुश्किल से दर्ज होती है अब 15 दिनों तक प्राथमिक जांच होती रहेगी यही नहीं हफ्तों सुप्रीम कोर्ट में बहस चली कि सेक्शन 124a की आज के समय में कोई जरूरत नहीं इसे सेडिशन एक्ट कहते हैं राजद्रोह अधिनियम सुप्रीम कोर्ट ने इसके इस्तेमाल पर रोक लगा दी है कि अब सेक्शन 124a के तहत कोई भी नया मामला दर्ज नहीं होगा सरकार ने क्या किया तब कोर्ट के सामने सरकार ने भी माना था कि आईपीसी की धारा 124a औपनिवेशिक राज के समय लाई गई थी लेकिन अब तो नए कानून में राजद्रोह को और भी व्यापक कर दिया गया है इस बार इसका नंबर भी बदल दिया गया है सुप्रीम कोर्ट की वकील इंदिरा जयसिंह कहती हैं कि पुरानी धारा में तो संप्रभुता और एकता अखंडता का जिक्र तक नहीं था लेकिन भारतीय न्याय संहिता की धारा 150 में इसका जिक्र कर दिया गया है इससे होगा यह कि बात-बात में लोगों पर राजद्रोह लगाया जाता रहेगा बल्कि टाइटल ही इसका इस तरह से है टाइटल है भारत की संप्रभुता एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाला कार्य और आगे लिखा है जो कोई प्रयोजन पूर्वक या जानबूझकर बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्य रूपण या इलेक्ट्रॉनिक संसू चना स्वरा या वित्तीय साधन के प्रयोग द्वारा या अन्यथा अलगाव या सशस्त्र विद्रोह या विध्वंसक क्रियाकलापों को प्रदीप्त करता है या प्रदीप्त करने का प्रयास करता है या अलगाववादी क्रियाकलापों की भावना को बढ़ावा देता है या भारत के संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालता है या ऐसे अपराध में सम्मिलित होता है या कारत रहता है वह आजीवन कारावास से या ऐसे कारावास से जो 7त वर्ष तक हो सकेगा दंडनीय होगा और जुर्माने के लिए भी दाई होगा जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकेगा या ती वर्ष तक कारावास से जिसमें जुर्माना जोड़ा ड़ा जा सकेगा या जुर्माने से दंडित किया जाएगा इसकी हिंदी जरा मुश्किल तो है जरा नहीं बहुत मुश्किल है लेकिन कानूनी भाषा की अंग्रेजी भी कहां आसान होती है वकील इंदिरा जयसिंह कहती हैं कि पहले के कानून में भारत की संप्रभुता और एकता का कोई उल्लेख नहीं था भारतीय न्याय संहिता में पहली बार इसे अपराध बना दिया गया अब होगा यह कि हिंसा की मामूली घटनाओं को भी भारत की संप्रभुता और एकता से जोड़ दिया जाएगा यही नहीं इंदरा जयसिंह ने लिखा है कि यूएपीए मामलों में जो जांच अधिकारी होता था वह स्थानीय जांच अधिकारी से ऊपर के लेवल का होता था लेकिन नए कानूनों में स्थानीय जांच अधिकारी को भी यूएपीए के प्रावधान पकड़ा दिए गए हैं अब एसएचओ के पास भी पावर होगा अब किसी भी थाने में आतंकवाद के मामले की जांच होगी और इन प्रावधानों का इस्तेमाल होने लग जाएगा यूएपीए में जांच शुरू करने से पहले सरकार से इजाजत लेनी जरूरी होती थी जैसे अभी खबर आई कि अरुंधति रॉय के खिलाफ 2010 के केस में दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने स्वीकृति दी है पीयूसीएल के कविता श्रीवास्तव और वी सुरेश के 24 जून के विस्तृत विश्लेषण में बताया गया है कि भारतीय न्याय संहिता में अब किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं तो अब तो थानेदार किसी को भी डरा देगा बोलो क्या करना है यूएपीए लगा दूं उनका कहना है कि मामूली हिंसा की घटनाओं को भी आतंकवाद के स्तर पर ले जा या जा सकेगा और यूएपीए की धारा लगा दी जाएगी इसी से मिलता जुलता एक सेक्शन 113 भारतीय न्याय संहिता में जोड़ा गया है जिसका नाम ही है टेररिस्ट एक्ट सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान या नुकसान की संभावना भी आतंकवादी कृत्य की परिभाषा में शामिल कर दिए गए हैं अब आते हैं उस दलील पर जो मेरी नजर में बकवास भी है और फालतू भी है कहा जा रहा है कि इन कानूनों के पीछे की सोच यह है कि अंग्रेजी राज की मानसिकता से आजाद करना अंग्रेजी राज की मानसिकता से अंग्रेजी में इसे डी कॉलोनाइजेशन कहते हैं संसद परिसर के बाहर विपक्ष के सांसदों के हाथ में जो संविधान है वह पूरी तरह से भारतीय है भारतीय सदस्यों से बनाई गई यानी संविधान सभा के सदस्यों ने इसके एक-एक प्रावधानों पर चर्चा की पास किया और संविधान बना डॉकर भीमराव अंबेडकर का संविधान देखकर किसी को याद नहीं आता है ना आना चाहिए कि इसका संबंध किसी अंग्रेजी राज की मानसिकता से है बेशक इसके कुछ प्रावधान पुराने हो सकते हैं दूसरे देशों से लिए गए हो सकते हैं या फिर नए संदर्भों में नए प्रावधानों की जरूरत पड़ सकती है लेकिन अचानक किसी सुबह उठकर गोदी मीडिया के चैनल में जाकर आप यह प्रवचन नहीं दे सकते के भारतीय दंड संहिता को इसलिए हटाया जा रहा है क्योंकि यह औपनिवेशिक मानसिकता का प्रतीक है ऐसी बातें बहुत विचित्र लगती हैं इस हिसाब से तो संविधान के भी कई प्रावधान दुनिया भर की संसदीय प्रणाली से प्रभावित है क्या आप कह सकते हैं कि हमारा संविधान भारतीय नहीं है डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने औपनिवेशिक कानूनों के बड़े हिस्से के संविधान में इस्तेमाल के आरोप पर 4 दिसंबर 1948 को संविधान सभा में कहा था संविधान के मसौदे पर लगाए गए इस आरोप के जवाब में कि हमने भारत शासन अधिनियम 1935 का अच्छा खासा हिस्सा इसमें शामिल कर लिया है मैं जरा भी सफाई नहीं देना चाहूंगा इस किस्म के आदान प्रदान में कुछ भी लज्जा जनक नहीं है जो पुरानी हमारी आईपीसी और सीआरपीसी और एविडेंस एक्ट था उनमें नई धाराओं का अमेंडमेंट कर दिया है पुरानी खत्म करके आईपीसी आईपीसी जगह प एनबीसी कर दिया है बीएनएस कर दिया है और केवल अंकों की इधर हेराफेरी हुई है मात्र मतलब अंक घटा बढ़ा दिए गए हैं धारा में परिवर्तन कर दिया गया है जोक जो की क्यों एडिट है सब मामला जैसे पहले न से दो हत्या में धारा लगती थी अब उसकी जगह पर 103 कर दी गई है उसी प्रकार से जो अटम टू मर्डर होता था 307 होती थी उसकी जगह पर 109 कर दी गई है जैसे की धारा अमूमन पहले 323 लगती थी उसकी जगह पर 11 कर दी गई है ऐसे कुल मिलाकर के धाराओं के अंकों में परिवर्तन कर दिया गया है डेफिनेशन समान है कोई अंतर नहीं है सजा का प्रावधान भी सेम ही है लगभग सेम ही है कुछ में सजा का प्रावधान बढ़ा दिया गया थोड़ा बहुत किसी में कम कर दिया गया है उसी प्रकार से सीआरपीसी सीआरपीसी तो यो की तो है वो उसमें कोई खास अंतर नहीं है केवल धारा ही बढ़ दी गई है प्रोसीजर वही है जैसे सीआरपीसी एक सीढ़ होती है तो हमारी वि व्यवस्था में जो सी है व जो की त्य है कुछ डंडे बढ़ दिए गए ऊंचाई कर द गई है कुछ डंडे नीचे कर दिए गए नीची कर द गई है एविडेंस एट है जैसा का तैसा है कोई उसमें फेर बदल नहीं है मेरी राय में तो इसके होरे से प्रशासनिक अधिकारियों को हमारे न्यायिक अधिकारियों को और पुलिस प्रशासन को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इन इन तीनों एक्टों को पढ़ने के लिए टाइम चाहिए समझने के लिए टाइम चाहिए और काफी मेहनत करनी पड़ेगी इससे मैं ज्यादा संतुष्ट नहीं हूं जैसे यह हेराफेरी हुई है गुलामी की मानसिकता या अंग्रेजी मानसिकता की गुलामी से आजादी टाइप की बहस से कोई फायदा नहीं अगर आपके अधिकार कम होते हैं पुलिस को ज्यादा पावर मिल रहे हैं तो इसका मतलब है अंग्रेजी राज की तरह ही स्टेट को मजबूत किया जा रहा है भले ही यह काम अंग्रेजी में हो या हमारी हिंदी में याद रखिएगा हिंदी बोल देने से ही राज्य व्यवस्था मानवीय और भारतीय नहीं हो जाती है हिंदी बोलकर भी शासन उतना ही क्रूर और विभ हिंसक और झूठा हो सकता है जितना वह किसी अन्य भाषाओं में इसलिए नागरिक अधिकारों की बात कीजिए उसकी चिंता कीजिए आज आपके घरों में जो बच्चा अंग्रेजी बोलता है वह कहीं से भी औपनिवेशिक नहीं है क्या उसे आप अंग्रेजों की अंग्रेजी बोलकर खारिज कर सकते हैं तो फिर हर अंग्रेजी बोलने वाले को गुलाम घोषित कर दीजिए आप माता-पिता के रूप में केवल अंग्रेजी सिखाने के लिए कभी हिसाब जोड़िए कि बच्चे पर प्राइमरी से लेकर कॉलेज तक में लाखों रुपए आप खर्च करते हैं किस-किस चीज को विदेशी प्रभाव से आप मुक्त करेंगे कायदे से तो आपको विदेश भी नहीं जाना चाहिए जो विदेश में बस गए उन सबको पकड़ के ले आना चाहिए ताकि उन्हें आजाद भारत में बसाया जा सके वो बाहर जाकर गुलाम हो गए हैं इस तरह की बातें फालतू हैं आपकी सोच हजार तरीके से कॉलोनाइज की जाती है यह प्रक्रिया चलती रहती है सीरियल से लेकर गानों तक से भी आपका जीवन आपका खानपान सब कुछ कॉलोनाइज होता रहता है यह एक प्रक्रिया है जिसके प्रति लोग सजग होते हैं और अपने हिसाब से रास्ता तय कर लेते हैं सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल का भी मानना है कि इन तीनों कानूनों में भारतीयता जैसी कोई चीज नहीं वरिष्ठ वकील और पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह काफी सक्रियता से इन पहलुओं को उठा रही हैं इंडियन एक्सप्रेस में पूर्व वकील इंदिरा जयसिंह लिखती हैं कि एट द हार्ट ऑफ एवरी क्रिमिनल लॉ इज द नीड फॉर इट्स कंप्लायंस विद क्रिमिनल प्रोसीजर मतलब यह हुआ कि कानून बना तो रहे हैं उसे लागू कैसे किया जाए उसकी प्रक्रिया क्या होगी सब कुछ इस पर निर्भर करता है तो इस पर ठीक से विचार विमर्श आप कीजिए इंदिरा जय सिंह कहना चाहती हैं कि आपराधिक कानूनों में नागरिकों को जीवन और स्वतंत्रता से वंचित करने की शक्ति होती है यह बेहद जरूरी बात है ध्यान से समझिए गंभीरता से लीजिए इंदिरा जयसिंह कहती हैं कि किसी व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता से आप वंचित नहीं कर सकते यानी जेल में नहीं डाल सकते फांसी पर नहीं लटका सकते आर्टिकल 21 भी कहता है कि ऐसा आप यूं ही नहीं कर सकते इसके लिए कानून ने जो प्रक्रियाएं तय की है उनका पालन करना होगा भारतीय दंड संहिता और क्रिमिनल प्रोसीजर कोड सीआरपीसी के जरिए इसकी पूरी व्यवस्था बना दी गई है ताकि आप सुरक्षित महसूस करें लेकिन 1 जुलाई से यह सब अतीत होने जा रहा है बहुत ध्यान से इसे समझने की जरूरत है जो मैंने नहीं बताया उसके बारे में भी पता कीजिए जो मुझसे बताने में कमी रह गई मुझे भी बताइए ताकि अगले वीडियो में मैं इसे ठीक कर सकूं नमस्कार मैं रवीश कुमार