Transcript for:
के दुख का अधिकार

के दुख का अधिकार हमारे समाज में आज भी आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्ति को महत्व दिया जाता है और गरीब लोगों की अवहेलना की जाती है हमें उनके दुख-दर्द और तकलीफों से कोई सरोकार नहीं होता यशपाल द्वारा रचित यह कहानी ऐसे ही समाज की संकुचित मानसिकता को उजागर करती है आइए इस कहानी को और इसके मूल भाव को समझने का प्रयास करें मनुष्यों की पोशाक उन्हें विभिन्न श्रेणियों में बांट देती हैं प्रायः पोशाक ही समाज में मनुष्य का अधिकार और उसका दर्जा निश्चित करते हैं वह हमारे लिए अनेक बंद दरवाजे खोल देती है परंतु कभी ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि हम जरा नीचे झुककर समाज की निचली पहाड़ियों की अनुभूति को समझना चाहते हैं उस समय यह पोशाक संबंध है और अड़चन बन जाती है जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देते उसी तरह परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झड़ने से रोकने रहती हैं बाज़ार में फुटपाथ पर कुछ खरबूजे गलियां में और कुछ ज़मीन पर बिक्री के लिए रखे जान पड़ते थे खरबूजों के समीप एक अधेड़ उम्र की औरत बैठी रो रही थी खरबूजे बिक्री के लिए थे परंतु उन्हें खरीदने के लिए कोई कैसे आगे बढ़ता खरबूजों को बेचने वाली तो कपड़े से मुंह छिपाए सिर को घुटनों पर रखें भक्त करो रही थी पड़ोस की दुकानों के तटों पर बैठे यह बाजार में खड़े लोग गहरा से उसी स्त्री के संबंध में बात कर रहे थे उस अली का रोना देखकर मन में एक वृद्धा से उठेगी यहां पर उसके रोने का कारण जानने का उपाय क्या था फुटपाथ पर उसके समीप बैठ सकने में मेरी पोशाक ही व्यवधान बन खड़ी हो गई एक आदमी ने गिरने से एक तरफ थूकते हुए हुआ था कि जवान लड़की को पूरा नहीं और यह लगा कर दूसरे तरफ दाढ़ी खुजलाते हुए थे जैसे वे सामने फुटपाथ पर खड़े एक आदमी की से लोगों का क्या है यह हमने रोटियों के टुकड़े पर नियुक्त कसम रोटी का टुकड़ा परचून की दुकान पर बैठे लालाजी ने कहा कि युवा कोई मतलब दो किसी के धर्म ईमान का तो खयाल करना चाहिए जवान बेटे के मरने पर तेरा दिन का सूतक होता है और वह यहां सड़क पर बाजार में आकर खरबूजे बेचने बढ़ गई है हजार आदमी आते जाते हैं कोई क्या जानता है कि घर में सूतक को इसके खरबूजे खा ले तो उसका ईमान धर्म कैसे रह का यह पास-पड़ोस की दुकानों से पूछने पर पता लगा कि उसका रस का जवान लड़का था घर में उसकी बहू और पोता पोती लड़का शहर के पास डेढ़ बीघा जमीन करके परिवार का निर्माण करता था खरगोशों के लिए बाजार में सब्सक्राइब परसों सुबह अंधेरे में खरबूजे की तरह काम करते हुए पर लड़के का पैर पड़ गया सांप ने डस लिया है कि लड़के की बुढ़िया मां बावली होकर औझा को बुलाई झड़ना भूख ना हुआ नाग देव की पूजा हुई पूजा के लिए दान दक्षिणा चाहिए घर में जो कुछ आटा और अनास्था दान-दक्षिणा में उठ गया मां और बच्चे भगवान से लिपट लिपट कर रोए पर भगवान आप जो एक दफा चुप हुआ था तो फिर बोला सब्सक्राइब बटन काला पड़ गया था आदमी भी रह सकता है परंतु मुद्दे को कहते हैं कि युवराज की दुकान से कब लाना ही होगा चाहे उसके लिए मां के हाथों से ही क्यों भगवान् पर लोग चला गया घर में जो कुछ करने में नहीं रहा तो क्या लड़के सुबह उठते ही भूख से बिलबिला ने लगे दादी ने उन्हें खाने के लिए खरबूजे दे दिए लेकिन बहू को क्या देती बहू का पतन बुखार से तवे की तरह तप रहा था अब बेटे के बिना बुढ़िया को ध्वनि चवन्नी भी कौन उधार देता बढ़िया रोते-रोते और आंखें पहुंचते-पहुंचते भगवाना के बटोरे हुए खरबूजे इडलियां में समेटकर बाजार की ओर ले चले और चारा भी क्या था बढ़िया खरबूजे बेचने का साहस करके आई थी परंतु सिर पर चादर लपेटे सिर को घुटनों पर टिकाए हुए भक्त कर रही थी कल जिसका बेटा चल आज वह बाजार में बेचने पत्थर दिल संयुक्त पत्र वियोगिनी के रुख का अंदाजा लगाने के लिए पिछले साल अपने पड़ोस में पुत्र की मृत्यु से दुखी माता की बात सोचने लगा वह संभ्रांत महिला पुत्र की मृत्यु के बाद लड़ाई मांस तक पलंग से उठ ना सकी थी उन्हें 15 15 मिनट बाद पुत्र वियोग से मूर्छा आ जाती थी और छानने की अवस्था में आंखों से आंसू ना रख सकते थे 22 डॉक्टर हरदम सिरहाने बैठे रहते थे हरदम सर पर बर्फ रखी जाती थी शहर भर के लोगों के पुत्र शोक से द्रवित हो उठे थे जब मन को का रास्ता नहीं मिलता तो बेचैनी से खत्म हो जाते हैं इस हालत में नाक ऊपर उठाएं राह चलतों से ठोकरें खाता मैं चल रहा था सोच रहा था जो करने मनाने के लिए लिए चाहिए और हुआ था दुखी होने का भी एक अधिकार होता है